शनिवार, 31 अगस्त 2013

Onion & D प्याज़ Politics : D Definition D Evolution & Revolution



प्याज़ !!!

इस शब्द से डरिए मत... ये अब हमारी,  आपकी और सबकी जिंदगी का अहम हिस्सा बन चुका है साथ ही इसकी महत्ता और महत्वाकांक्षा लगातार बढ़ती जा रही है  *** काश शेयर मार्केट प्याज़ से कुछ टिप्स ले पाता ***  जितना शेयर बाज़ार मेरी पहुंच में है प्याज़ भी करीब-करीब मेरे करीब होकर भी उतना ही दूर होता जा रहा है। दोनों पर मेरा कोई बस नहीं लेकिन फिर भी मेरी कोशिश है कि मैं प्याज़हित में जनसाधारण के ज्ञान में थोड़ा योगदान दूं और अपने विकसित हो रहे ज्ञान का प्रमाण दूं। इसी कड़ी में सबसे पहले मैं आपको प्याज़ की परिभाषा से अवगत कराता हूं।

गूगल पर सर्च करने के दौरान  इन तस्वीरों और विकिपीडिया पर मैने प्याज़ की परिभाषा को जैसा पाया वो ज्यों की त्यों आपके सम्मुख प्रस्तुत है।


प्याज़ (Onion) एक वनस्पति है जिसका कन्द सब्ज़ी के रूप में प्रयोग किया जाता है । भारत में महाराष्ट्र में प्याज़ की खेती सबसे ज्यादा होती है। यहाँ साल मे दो बार प्याज़ की फ़सल होती है - एक नवम्बर में और दूसरी मई के महीने के क़रीब होती है। प्याज़ भारत से कई देशों में निर्यात होता है, जैसे कि नेपालपाकिस्तानश्रीलंकाबांग्लादेश, इत्यादि। प्याज़ की फ़सल कर्नाटकगुजरातराजस्थानउत्तर प्रदेशबिहारपश्चिम बंगाल मध्य प्रदेश जैसी जगहों पर अलग-अलग समय पर तैयार होती है।
( मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से )


परिभाषा तो आपने जान ली लेकिन अब बात उपयोगिता की आती है।

जैसा कि अक्सर होता आया है जनहित में सरकार तो बाद में करेगी मैं ' हेमन्त वशिष्ठ ' अपनी जबरदस्त औऱ जबरदस्ती की दूरदर्शिता का प्रमाण देते हुए भारत देश के अलग-अलग राज्यों के सभी स्कूलों में हिंदी विषय के पाठ्यक्रम में सुधार के मद्देनज़र प्याज को एक विषय या सब्जेक्ट के तौर पर नहीं तो कम से कम ऑब्जेक्ट ...एक लेख,निबंध के तौर पर शामिल किए जाने की अनिवार्यता का अनुमोदन करता हूं।

सुविधानुसार ये बदलाव बाकी विषयों में भी किया जा सकता है। जैसे बायोलॉजी में प्याज़ की चीरफाड़ ... थोड़ी महंगी पड़ेगी लेकिन अत्यंत ज्ञानवर्धक सिद्ध होगी। इंसान के दिलोदिमाग पर प्याज का कितना प्रभुत्व है इसका सही प्रमाण हमें इन्हीं शोधकार्यों से प्राप्त होगा। प्याज़ की विभिन्न परतों के बीच हमें प्याज़ के अलग अलग दामों पर इंसानों के अलग अलग रिस्पॉन्स की झलक या फिर इम्प्रिन्ट साफ नज़र आएगा।

जो काम अंग्रेजी के सब्जेक्ट में कीट्स...इलियट...शेक्सपीयर...वर्ड्सवर्थ... मिल्टन नहीं कर पाए वो प्याज़ जरुर करने में सफल साबित होगी। छात्रों को सिर्फ एक प्याज दे दीजिए फिर देखिए उनकी कल्पना शक्ति कहां तक उड़ान भरती है। किस्से... कहानियां ... कविताएं ... शब्दार्थ ... भावार्थ ... सब कुछ आपको प्याज़मय प्रतीत होगा ।

फीजिक्स के सारे सिद्धांत फिर से लिखे जाएंगे। सेब का नीचे गिरना अगर गुरुत्वाकर्षण बल का प्रभाव है तो फिर ये प्याज पर लागू क्यों नहीं होता है । आखिर क्यों प्याज़ की कीमतें इसे आम आदमी की पहुंच से लगातार ऊपर ...  और ऊपर ले जा रही है।

सेब गिरा था तो प्याज़ का गिरना भी बनता है ना लेकिन यहां तो प्याज़ के नाम पर सरकारें बनने और गिरने की बातें होती हैं । लोगों को प्याज़ के सपने दिखाए जा रहे हैं ... भले ही वो सरकार हो ... विपक्ष या फिर हमारे बीच के ही ... कुछ लोग। सरकारी प्याज़ के स्टॉल लग रहे हैं। हर कोई सस्ती प्याज़ बेचने का दावा कर रहा है।

नफे-नुकसान को दांव पर रखकर जनता की सेवा की जा रही है आखिर कैसे कोई महंगे दामों पर प्याज़ खरीद कर इतनी भारी मात्रा में जनता को उपलब्ध करा सकता है ... इसके पीछे के गणित को स्टडी करने के उपरांत हम इसके जरिए इकोनॉमिक्स विषय को भी भलीभांति समझने का सफल-असफल प्रयास कर सकते हैं ।

प्याज़ की खेती...फसल...पैदावार से लेकर उसके मंडियों तक आने का सफर । किसान को नाममात्र के भुगतान के साथ ही प्याज़ की जमाखोरी और उससे मुनाफाखोरी का ये पूरा तंत्र आपको एक सिस्टम के तहत चलने का आदी बनाता है । अगर आप चाहते हैं कि आगे निकट भविष्य में कोई आपकी एडमिनिस्ट्रेटिव समझ पर सवाल ना उठाए तो आप इस पूरे तंत्र का गहन अध्ययन अपने उपयोग या दुरुपयोग में सुविधानुसार ला सकते हैं।

इसके जरिए आप मौसम के भी एक्सपर्ट बन सकते हैं। कई बार मौसम के चलते प्याज़ की फसल पर उसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। प्याज की फसल कभी खराब हो जाती हो तो कभी खराब मौसम के चलते मंडियों तक पहुंच नहीं पाती और नतीजा प्याज़ आपको बादलों के साथ साथ दिन में तारे दिखाने लगती है।

देश की अर्थव्यवस्था से भी प्याज़ सीधे तौर पर जुड़ी हुई है । शुरुआत आपके हमारे घरों के बजट से ही हो जाती है । आप ये ना समझिए कि प्याज़ सिर्फ आपकी आंख में आंसू ही ला सकती है प्याज़ अपने पर आ जाए तो बड़ी बड़ी सरकारें घुटनों के बल चलने पर मजबूर दो जाती हैं। इस तरह से प्याज देश की राजनीति को समझने और राजनीति शास्त्र के अध्ययन का भी एक अनूठा लेकिन सशक्त माध्यम है।

उदाहरण के तौर पर ... यदि रसोई से निकल कर महिलाएं अगर सत्ता और सरकार चला सकती हैं ( चाहे वो किसी भी स्तर पर हो ) तो फिर उसी रसोई से निकला प्याज़ सरकार बना क्यों नहीं सकता भाई । बताओ ज़रा ... ये भेदभाव आखिर क्यों ... 

साम्राज्यवाद... समाजवाद ... इन  सब के बाद ये दौर अब प्याज़वाद का है। प्याज़ एक स्टेट्स सिंबल के साथ साथ राष्ट्र की पहचान भी बन सकता है। प्याज़ पर डाक टिकटें जारी होंगी, सड़कों...मोहल्लों...गलियों के नाम वहां खाई... पाई और उगाई जाने वाली प्याज़ के नाम पर तय होंगे। प्याज़वाद के इस दौर में तमाम तरह के सामाजिक और उसके समानांतर आपके लाइफ स्टाइल में बदलाव की भी आप उम्मीद कर सकते हैं।

बहुत संभव है कि  ' onion rings ' आपकी प्लेट से गायब हो जाएं और आपकी उंगलियों की शोभा बढ़ाएं, और आप  ' platinum rings ' को भूल जाएं । बैंक अपने लॉकर्स में ज्यादा से ज्यादा प्याज़ रखने वालों को प्रोत्साहित करने के नाम पर कम दरों में कर्ज मुहैया कराए और ज्यादा इंट्रेस्ट रेट भी दे।

प्याज़ आपको अपराध करने पर भी मजबूर कर सकती है । ऐसी ही एक खबर सुनने को मिली , टनों प्याज़ से भरा एक ट्रक लूट लिया गया। लूटी गई प्याज़ की कीमत लाखों में थी ऐसे में ब्लैक में बेचने पर यकीनन लुटेरों ने अपनी सात पुश्तें सुधार ली होंगी।

ये तो टनों प्याज़ थी जो लूटी गई और रिपोर्ट की गई जिससे बात हमारे संज्ञान में आई। लेकिन प्याज़ के नाम पर हमें कब तक लूटा जाता रहेगा ये आपको और हमें शायद पता भी नहीं चलता है।

लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि Dollar अगर Rupee के पीछे पड़ा है तो प्याज़ रुपए का बदला डॉलर से ले रहा है। 

Democracy है भाई जब Oil economics या फिर Oil politics काम कर सकता है तो बदलती हुई world economy में प्याज़ पॉलिटिक्स भी जरुर अपनी जगह बनाने में सफल होगा। Sensex... wall street ... nasdaq ... nifti ... euro markets ... swiss accounts ... best exotic holiday destinations हर जगह प्याज़ का बोलबाला। जो भी देश प्याज़ के export-import पर control रखेगा वहीं अगला सुपरपावर ... ooopppsss ... प्याज़पावर देश होगा ।

जस्ट इमेजिन !!!

सब्जी को स्वाद बनाने वाली प्याज कब सरकारें बनाने लगी ...
शायद उसे खुद भी पता नहीं चला।
प्याज़ के आंसू कब कसैले ...और कसैले होते चले गए ...
पता ही नहीं चला।
प्याज़ कब घर का बजट बिगाड़ने लगी ...
पता ही नहीं चला।
प्याज़ के लिए कब हम दूसरे मुल्कों के सामने हाथ फैलाने लगे ...
पता ही नहीं चला।
प्याज़ के लिए नेता कब आम जनता को ही छलने लगे ...
पता ही नहीं चला ।

प्याज़ ... प्याज़ ही तो थी ... माफ कीजिएगा ... कब वो कोढ़ में खाज बन गई ... 
पता ही नहीं चला

ये लो ... 
मैं भी तो सिर्फ प्याज़ पर निबंध लिखने चला था। 
( *** सिलेबस बदलना है ना सर *** )
कब इमोशनल हो गया ...
पता ही नहीं चला . . . 



गुरुवार, 29 अगस्त 2013

राजनीति की प्याज़


ऐ ऐ... सुनो सुनो कहां जा रहे हो ...
यहां आओ ....
हमारे यहां जो माल है वो कहीं नहीं मिलेगा ...
दिल्ली में सबसे सस्ती प्याज़ ...
सरकारी प्याज़ के स्टॉल पर मिलेगी ...
ले जाओ चुपचाप ... दो किलो के नाम पर...
डेढ़ किलो की थैली है ...
हां हां ... इसमें भी घोटाला है ...
तू क्या कर लेगा ...
हुंह ... 
खबरदार जो चूं तक की ...
जरा खाकर देखना ...
मज़ा आ जाएगा ....
तेरे ही खून पसीने की कमाई से खरीदी है ...
अब तू हमसे खरीद ले ...

अरे अरे रुको तुम जरा वहीं....
ये क्या अंधेरगर्दी है ...
हमारी प्याज सरकारी प्याज से सस्ती और अच्छी है ...
हम विपक्ष हैं ...
हम हमेशा अच्छा विकल्प ही बन कर रहते हैं ...
तो क्या हुआ जो हमारे पास खुद कोई विकल्प नहीं
बिल्ली के भाग्य से कभी तो छींका फूटेगा ...
खैर
जनता की उम्मीदों को बेच कर...
हम ये प्याज लाएं हैं ...
ले जाओ ... खरीद लो थोक के भाव ....
खुद को बेच कर मंडियों में ...
तुमने हम पर भरोसा किया था...
खा जाओ उसी भरोसे को अब मजे से फ्राई कर के ...

ओ हो ...हो हो  ....
किसने कहा है आपको इन लोगों के पास जाने को ...
हम आप लोगों में से ही हैं ...
हमने देखा आपको प्याज चाहिए...
तो हम आम आदमी के लिए प्याज भी ले आए...
बस आपके सपने बेचने पड़े...
वही सपने जो हम आपको लगातार दिखा रहे हैं ...
और ये दुकान भी सिर्फ आजभर लगेगी...
आम आदमी के सपनों का कोई मोल ही नहीं है ...
स्याला  !!! मंडी में ऐसे पिट रहे हैं ...
जैसे डॉलर के आगे रुपया पनाह मांग रहा है ...

चारों तरफ बस यही शोर
ले लो ... मेरी प्याज ले लो ....
लाल प्याज ले लो ... सफेद प्याज ले लो ... 
तुम्हारी प्याज ले लो...
हमारी प्याज़ ले लो ....
करप्शन में डूबी तुम काली प्याज़ ले लो ...
घर ले जाओगे तो पड़ोसी जलेंगे ...
बीवी प्यार करेगी ...
ऑफिस में सब्जी देख ...साथी रश्क करेंगे...
ले लो प्याज ...ले लो.............................................................................................................
.....................................................................

तभी... अचानक पसीना-पसीना होकर मेरी नींद खुल गई...
हांफता हुआ मैं रसोई की तरफ दौड़ा...
20 रुपए में दो प्याज़ खरीद कर लाया था...
फ्रीजर में संभाल कर रखे थे...
दोनों को सही सलामत पाकर....
रात के 2 बजे मैं प्याज के आंसू रो पड़ा ...

शनिवार, 24 अगस्त 2013

" तू क्या करेगा "

"  तू क्या करेगा  " ... तीन शब्द हैं । बड़े साधारण से, रोज़ाना की बातचीत में धड़ल्ले से इस्तेमाल किए जाते हैं बिना किसी हिचक ... झिझक... बेरोकटोक... अमूमन बिना किसी निहित स्वार्थ... भावार्थ और परमार्थ के । 
लेकिन प्रयोग यदि किसी विशेष संदर्भ में हो तो साधारण से लगने वाले शब्द... रोजाना के वाक्य और वाकये भी सोचने पर मजबूर कर देते हैं। 
उस दिन कुछ ऐसा ही हुआ। आमतौर पर दोपहर के वक्त... औऱ वो भी छुट्टी वाले दिन , मैं दिनभर सोने में विश्वास रखता हूं। लेकिन उस दिन किसी कारणवश मैं जागा हुआ था, कुछ काम से कहीं जाना था लिहाजा हफ्ते भर की नींद और उतनी ही बेतरतीब दाढ़ी लिए अपने इलाके के सबसे हैपेनिंग सलून पर जा पहुंचा ।
 नाम एकदम मॉडर्न ... दाम एकदम मॉडर्न ... और काम ... खैर छोड़िए, इसके अलावा बाकी चीज़ों में सुधार की काफी गुंजाइश थी, इसके अलावा दूसरे ऑप्शन गौर फरमाने लायक भी नहीं है। लेकिन भीड़ वहां भी कम नहीं रहती है।
खैर ... हमें इनका बिजनेस मॉडल या पैटर्न स्टडी नहीं करना है, बल्कि उस दिन यहां कुछ ऐसा हुआ जिससे मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया । 
अरसे से मुझे लगने लगा था कि इंसानियत... अपनापन औऱ आत्मीयता जैसी मानवीय भावनाएं हमारे ऑफिस ( कृप्या बहुवचन संदर्भ लें) या फिर परिवेश से गायब हो चुकी हैं और इनकी जगह कदाचित ऐसी मशीनी भावनाओं ने ले ली है जो अभी खुद अपने अस्तित्व से अनजान हैं, लिहाजा इंसानों का वजूद उनके लिए कोई औचित्य नहीं रखता है । 
लेकिन मशीनी भावनाओं या फिर सीधे-सपाट शब्दों में इंसानियत के अभाव का ये वायरस हर जगह अपनी मौजूदगी का अहसास करा रहा है।
हम हकीकत से रुबरु कराते इस किस्से के उस हिस्से पर सीधा पहुंचते हैं जहां इसकी शुरुआत हुई।
आज काफी दिनों के बाद मिस्टर ए से मुलाकात हुई। मिस्टर  ' ए ' एकदम खुशमिजाज किस्म के मस्तमौला उस्ताद हैं। उस्ताद इसलिए क्योंकि उस मॉडर्न शेव शॉप पर वो सबसे पुराने मुलाजिम हैं ( कायदे से पीएफ, ग्रेच्युटी वगैरह वगैरह के हकदार, लेकिन हिस्से में क्या आता है ... कम गल्ला होने पर सबके हिस्से की गालियां ... शराब का ठेका बंद होने से पहले रोज़ाना मालिक के लिए शराब और चखना लाने की जिम्मेदारी और कभी-कभी मालिक के मूड में होने पर एक-दो पैग भी गटकने को मिल जाते हैं  ) । 
उस्ताद बिना गाना सुने शेव नहीं बनाते हैं औऱ कटिंग तो बिल्कुल नहीं । उनकी बातें कुछ इस किस्म की होती हैं कि लोगों के बाल सुनते सुनते पक जाएं लिहाजा वो कलरिंग भी पूरे शौक से करते हैं। 
.........................औऱ उनकी दुकान पर छंटनी नहीं होती है जैसा कि बड़ी बड़ी कई तरह की दुकानों में बड़ी ही बेशर्मी से कर दी जाती है । .........................
खैर... जल्दी थी तो हमने उस्ताद जी से इल्तजा की, कि थोड़ा जल्दी फारिग कर दिया जाए, तो उस्ताद जी भी एकदम मौके की नजाकत को समझते हुए फौरन काम में जुट गए। मोबाइल पर गोविंदा का एक तड़कता-फड़कता सा गाना लगाया और उस्ताद का उस्तरा सटासट चालू । 
इस बीच वहीं बैठे आराम फरमा रहे एक चेले ' ई ' का फोन बजता है। चेला कुछ नया सा जान पड़ रहा था , फोन बजने से पहले तक ये नया चेला उस्ताद जी से प्रवचन सुन रहा था उसकी काहिली को लेकर । और वो सिर्फ मिमिया रहा था। फोन घर से था और मामला सीरियस जान पड़ रहा था, लिहाजा उस्ताद जी शेव बनाने में जुट गए तो चेला फोन सुनने में । 
चेले ने फोन रखा तो आंखों में आंसू थे और गला रुंधा हुआ था। उस्ताद जी ने फौरन हाथ रोका और चेले से पूछा सब खैरियत ... चेला रोने लगा । साथ के बाकी चेले ... बी , सी और डी उसे चुप कराने लगे । सुबकियों के बीच उसने बताया कि उसके चाचा की लड़की ने फांसी लगाकर खुदकुशी कर ली है , वजह .. जाहिर सी बात है पता नहीं ...  या बताई नहीं गई, लेकिन चेले को फौरन घर बुलाया है। 
चेले ने उस्ताद जी से घर जाने की इजाजत मांगी तो उस्ताद जी ने सलून के मालिक को फोन करने की सलाह दी। आखिर उस्ताद जी भी तो लाला की चाकरी करते हैं, कैसे खुद से चेले को घर जाने के लिए बोल देते , दुकान पर तो एक अदद हैंड कम हो जाता ना , उसकी जिम्मेदारी कौन लेता। 
चेला नया था, डरते-डरते आंखों में आंसू लिए मालिक को फोन किया। दोपहर का वक्त था, मालिक आराम फरमा रहे थे लिहाजा सास-बहू सीरियल देख रही मालकिन ने फोन उठाया और परेशान करने का सबब पूछा। चेले ने डरते-डरते... रोते-रोते ... पूरी बात उन्हें बताई ।  
मालकिन जाहिर तौर पर एक महिला हीं थी, लिहाजा इनसे एक महिला सा व्यवहार ही अपेक्षित था... लेकिन वो तो मालिक से भी दो कदम आगे निकली । मालिक हो सकता है शराब के नशे में इन लोगों के साथ बदतमीजी से पेश आता हो ... वो भी शायद ... लेकिन मालकिन का जवाब चौंकाने वाला था...
मालकिन का जवाब --- जैसा बताया गया  --- " मरने वाली तो मर गई है, अब तेरे जाने से क्या हो जाएगा। बता ... तू क्या करेगा । " ...
पूरी दुकान में हर तरफ बस यहीं गूंज रहा था... 
तू क्या करेगा । वो तो मर गई है , अब तेरे जाने से क्या होगा । 
चेला रुकने की हालत में नहीं था लिहाजा उस्ताद जी ने अपने रिस्क पर उसे घर रवाना कर दिया । इंसानियत अभी घिसट-घिसट कर ही सही लेकिन जिंदा दिखाई दी। 
मैं भी शेवोपरांत घर की तरफ चल पड़ा ... लेकिन सामने रास्ता दिखाई देना बंद हो चला था... दिमाग शून्य था और मैं संज्ञाशून्य ... बस यही शब्द बार-बार सुनाई दे रहे थे ... तू क्या करेगा  ... 
" मरने वाली तो मर गई है, अब तेरे जाने से क्या हो जाएगा। 
बता ...
" तू क्या करेगा  " ...

सोमवार, 19 अगस्त 2013

........................ रिपोर्ट का इंतज़ार है ........................


**************************** DISCLAIMER ****************************

एक छोटी सी कहानी है जो हम बचपन से सुनते हुए आए हैं लेकिन कमबख्त पीछा छोड़ने का नाम ही नहीं लेती है ...
हर बार एक नए कलेवर और एक नए फ्लेवर के साथ सामने आ जाती है इतराती हुई ...
चाहे मामला कितना ही संजीदा क्यों ना हो  ।
इस कहानी की मासूमियत और मार्मिकता बरकरार रहती है , पात्रों,सुपात्रों या कुपात्रों से नहीं इसकी ये विशेषताएं  तथाकथित संलिग्न भावों से उपजी हैं ।
बरसों पुरानी कहानी का ये रेट्रो- रीमिक्स एक खरपतवारी सोच का नतीजा है और लेखक के मानसिक दीवालिएपन का द्योतक है लिहाजा इसे ' जैसा है वैसा है ' की श्रेणी में रखा जाए ।
(अरे जैसा नीलामियों में होता है मानसिक - आर्थिक कंगलों ) ...
और इस कपोल कल्पना को अन्यथा तो कतई ना लिया जाए और इसका किसी भी धर्म-संप्रदाय या फिर किसी व्यवसाय से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है ।

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ये कहानी एक शहरीकृत जंगल की है , जिसकी पृष्ठभूमि में बहुत से सवाल, घटनाएं, किरदार और इन किरदारों के कहे-अनकहे किस्से जुड़े हुए हैं लेकिन हम अपना वक्त बर्बाद ना करते हुए सीधा अपने रंगमंच की तरफ लौटते हैं जहां बहुत कुछ घटित हो रहा था । 
जंगल में अमूमन जंगलराज होता है... ये सर्वविदित है , इसके लिए हमें किसी प्रकार के अनुसंधान की जरुरत नहीं है  , लिहाजा फिर भी पाठकों की उत्सुकता को बनाए रखने के लिए और लेखन की तार्किकता बरकरार रखने के लिए हमने खुद जंगल में जाकर कई प्रकार के प्रयोग किए तो पाया कि तमाम दावों के बावजूद , औद्योगिकीकरण के इस दौर में भी हम इस जंगल को किसी तरह बचाए रखने में सफल रहे , हालांकि अब जाकर जंगल में तमाम तरह के बदलाव दस्तक देने लगे थे ।
जंगल में अब लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी थी... पाठक यहां ध्यान दे कि जंगल यहां एकवचन नहीं बल्कि बहुवचन में इस्तेमाल किया जा रहा है । बार-बार आने वाली प्राकृतिक आपदाओं के चलते इंसान प्रकृति के इतना नजदीक जा पहुंचा था कि जेनेवा कन्वेशन के एक स्पेशल सेशन में पूरे ब्रह्मांड को जंगल घोषित किया जा चुका था और जंगल को अपने आप में ब्रह्मांड की संज्ञा दे दी गई थी। और इस जंगल  में जीने का तंत्र अब लोकतंत्र था, शासन का तंत्र अब लोकतंत्र था। यानि कोई अपना शासन खुलेआम किसी पर नहीं थोप सकता था, बिना लाठी के भी अब लोग भैंस लेकर घूम सकते थे। लेकिन इन सब परिवर्तनों से अगर कुछ अछूता रहा था तो वो थी जंगल के राजा शेर की हुकूमत ।
शेर बहादुर की शानो-शौकत पहले जैसी ही बरकरार थी । वही रौब-वही रुतबा ... जीने का वही अंदाज़ । अब आप वजह भी जानना चाहेंगे , और आपको जानकर ये कतई आश्चर्य नहीं होगा कि लोकतंत्र में एक तंत्र के मुताबिक हुए चुनावों में जनाब शेर अब निर्विरोध जंगल के मुखिया चुन लिए गए थे।
हालांकि चुनाव पूरे नियम कायदों के अनुसार हुए थे, जंगल में गठित चुनाव आयोग की सरपरस्ती में सैकड़ों गौरैयों का झुंड चुनाव पर्यवेक्षक बना इठला रहा था । पुराने जमाने के एक रीछ ने जरुर बालहठ में महाराजा शेर के सामने चुनाव मैदान में अंत तक डटे रहने का फैसला किया था लेकिन सठियाने की उम्र में वो वो अपनी जमानत जब्त करा बैठे थे । बाकी सभी कैंडिडेट्स को शुरु में ही मैनेज कर लिया गया था ।
शेर के चमचे सियार और गीदड़ पहले से रही आस-पास के मानवीकृत गांवों से चुनावों को मैनेज करने की सारी डीटेल जुटा चुके थे। जमकर बूथ-कैप्चरिंग हुई... चुनाव जीतने के तमाम हथकंडे अपनाए गए ... हर संभव वादे जंगल की जनता के साथ किए गए । और इसका नतीजा ये निकला कि महाराज शेर लोकतांत्रिक तरीके से भी जंगल के राजा बन गए । सर शेर बहादुर की गिनती अच्छे नेताओं में की जाती थी, एक कुशल शासक बनने के तमाम गुण उनमें सकुशल विद्यमान थे लेकिन ना जाने क्यों चुनाव होते ही सत्ता संभालने के बाद उन्होंने इस प्रकार के सभी दुर्व्यसनों से किनारा कर लिया ।
अब हर तरह के सौदों ... डील्स ... टेंडर्स के रास्ते उनके दीवान-ए-खास वाले ड्राइंगरुम से निकलते थे तो उनके दुश्मनों के लिए रास्ते... उनके किचन से । अरे भाई शेर आखिर शेर ही होता है ना और जंगल का राजा शेर भूखा मर जाएगा लेकिन घास नहीं खाएगा। 
वैसे किसी भी सत्ता प्रणाली की ही तरह पावर का असली मजा महाराज शेर बहादुर के प्यादे यानि कि ... गीदड़, सियार, लोमड़ी वगैरह वगैरह किस्म के जीव कर रहे थे। कुछ ने तमाम तरह की संस्थाएं दानस्वरुप हथिया ली थीं तो कुछ अपने बिजनेस को नए आयाम देने में लग गए थे। हमारी कहानी का बिजनेस इसी से जुड़ा हुआ है...जैसा कि पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है कि वक्त की कमी से आजकल सभी जूझ रहे हैं फिर चाहे वो लेखक हो ... पाठक हो या फिर खुद किसी किस्से-कहानी के पात्र या फिर उनके बुझते परिवेश औऱ संवाद ... इसलिए हम निहायत ही कम शब्दों में आपकी विचारशीलता को वापस आपके बचपन में लिए चलते हैं जहां किस्से-कहानियों के लिए बहुत सारी जगह थी और बहुत सारा वक्त भी।
हुआ यूं कि जब जंगल में लोकतंत्र की स्थापना हुई तो सारे सेटअप का गहन अध्ययन किया गया और उसे ज्यों का त्यों अपनी सहजता और स्वभाव के अनुरुप अपना लिया गया । अब सबके लिए समान अवसर थे, सहूलियत के साथ भी और सहूलियत के बाद भी।  लिहाजा कहीं बिल्ली बाबू बनी तो बकरी अफसर। कुत्ता कहीं सिक्योरिटी गार्ड था तो तोता डॉक्टर बना । हाथी को जंगल के म्यूनिसिपल डिपार्टमेंट में बुलडोज़र की नौकरी मिल गई थी । तो ऊंट फायर डिपार्टमेंट के चीफ थे, क्यों... पता नहीं । खरगोश डाक विभाग में लगा दिए गए थे। जंगल की देखभाल का जिम्मा चील-कौवों के हवाले था तो ट्रैफिक विभाग हिरण ने संभाला हुआ था। चील, बाज़ और कौवे क्रमश: पुलिस, इंटेलिजेंस और होमगार्ड में शामिल कर लिए गए थे।

जंगल में समयानुरुप सुशासन की बयार बह रही थी  और जंगल  की जनता ने भी जीने के इसी खांचे में खुद को ढाल लिया था ।

सब कुछ एक दम शांति से चल रहा था जैसा कि व्यवस्था के अनुरुप चलना चाहिए लेकिन तभी अचानक से जंगल की शांति को जैसे किसी की नज़र लग गई । जनाब शेर बहादुर के एक अत्यंत खास चमचे सियार के बिजनेस तक कानून के लंबे हाथ जा पहुंचे और बहादुर अफसर बकरी ने ताबड़तोड़ कार्रवाई करते हुए जंगल को सुधारने का बीड़ा उठा लिया ।
बकरी बहादुर जरुर थी लेकिन उसमें व्यवहारिकता का घोर अभाव था, बकरी के कर्तव्य निर्वाहन की हर संभव मंच पर मीमांसा की गई और उसे प्रशासनिक तौर पर अक्षम घोषित कर दिया गया । हालांकि जंगल का एक तबका बकरी के साथ भी था लेकिन बकरी को सबक सिखाना अब जरुरी हो चला था ताकि भविष्य में कोई इस तरह से लोकतांत्रिक व्यवस्था का गलत इस्तेमाल कर नाहक ही जंगल समाज के सम्मानित लोगों को परेशान ना कर सके ।

*** बकरी पर शाही नदी के पानी को गंदा करने का आरोप लगाया गया , जो बाद में गलत साबित हुआ क्योंकि बकरी को शाही नदी के महल वाले हिस्से तक जाने की अनुमति ही नहीं थी और हमेशा की ही तरह बकरी का घर नदी के निचले हिस्से पर था और महल ऊंचाई पर ।

*** फिर एक और कमेटी बनाई गई जो बकरी पर शाही बगीचे की घास चरने के इल्जाम की जांच कर रही थी... वहां भी पाया गया कि बकरी कंटीली तारों के बीच में से जनता जनार्दन के लिए प्रतिबंधित उस हिस्से तक पहुंच ही नहीं सकती ।

*** बकरी पर ये भी आरोप लगाया गया कि वेजीटेरियन जनता भी बकरी को देखने के बाद अब नॉन-वेज खाना चाहती है, इससे जंगलराज के पुराने दिन लौट सकते हैं ।

***  बकरी पर ये आरोप भी लगाया गया कि उसने सियार के साथ हाथापाई की और उसे बाद में देख लेने की धमकी भी दी । सियार के साथ उस वक्त मौजूद रहे 10 लोगों में से 9 इस मामले में चश्मदीद गवाह हैं जिनमें दो नेत्रहीन भी शामिल है और एक गवाह अफसर बकरी के डर से जान बचाकर कहीं छुपा बैठा है ।

*** आरोप है कि बकरी ने अफसर होने के नाते अपने कट की भी मांग की और मांग के पूरा ना होने पर बदले की भावना से इस पूरी कार्रवाई को अंजाम दिया गया जिससे ... गलत धंधों के सही बंदे ...  बेहद परेशान हुए।

*** बकरी पर आरोप है कि उन्होंने मामले में कार्रवाई करने से पहले आला अधिकारियों से सलाह लेना उचित नहीं समझा और हेडक्वार्टर से आदेश मिलते ही तुरंत कार्रवाई को अंजाम दे डाला।

*** साथ ही बकरी पर ये भी आरोप लगाया गया कि उन्होंने सिस्टम के खिलाफ जाकर पूरे ऑपरेशन को अंजाम दिया। ये सारा काम एक सिस्टम के तहत पहले सुचारु रुप से होता था लेकिन बकरी ने अमानवीय एवं गैरजिम्मेदाराना रवैया अपनाते हुए सिस्टम का पूरा बैलेंस चौपट कर ही डाला जिससे कई बैंक बैलेंस बिगड़ गए।

*** लिहाजा आरोपों का एक मोटा पुलिंदा तैयार कर बकरी मामले पर  दर्जन भर जांच कमेटियां बैठा दी गईं हैं।

इस बीच जंगल की जनता ये जानना चाहती है कि आखिर बकरी की गलती क्या है ।
अगर है तो क्या है ?
मसला व्यक्ति का है या व्यवस्था का ...
अब ये तो साहब आपको जांच रिपोर्ट के आने तक इंतज़ार करना पड़ेगा कि सच क्या है और उस सच के आधार पर क्या फैसला होता है ...
अब सिस्टम में रहेंगे तो सिस्टम को तो मानना पड़ता है ना बॉस ...
इंतज़ार कीजिए ...
हमें भी है ... आप भी कीजिए ...

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

आज़ादी का अहसास

15 अगस्त 2013 . . .

सुबह जाने क्यों आज अलसाई सी थी, कमबख्त नींद को भी पता था कि आज छुट्टी का दिन है । छुट्टी का दिन...  तमाम रस्मों - रिवाज़ों , तमाम औपचारिकताओं के साथ लोगों की मानसिकता एक छुट्टी के दिन सरीखी हो गई है ।

15 अगस्त 1947 ... जाने कितनी आंखों ने इस दिन का इंतज़ार किया होगा... कितनी आंखें इस दिन के दीदार की ख्वाहिश लिए ही बंद हो गई होंगी... जाने कितनी आंखों ने इस दिन का सपना देखा होगा । और फिर कितनी ही आंखों ने इस सपने को पूरा होते हुए देखा होगा  । उस सपने को जिसे आज हम जी रहे हैं, मना रहे हैं... आज़ादी के इस दिन को।

ना ना ... घबराइए नहीं, मैं एक्सट्रा इमोशनल नहीं हूं ... इस पर मैं अपना स्टैंड पहले ही क्लीयर कर चुका हूं ।

इस राष्ट्रीय पर्व के दिन जब बाकी तमाम लोग अलसा रहे हैं, और मैं... मैं तैयार हो रहा हूं ऑफिस जाने के लिए।

जी ... मेरी छुट्टी नहीं है... मुझे ऑफिस जाना है । क्यों, ये मत पूछिए। बता नहीं पाउंगा, इसलिए कोशिश भी मत कीजिएगा और फेस टू फेस तो कतई नहीं ।  और इस वक्त घड़ी में क्या बजा है ये पूछने की भूल बिल्कुल मत कीजिएगा, क्यों !!! सर जी ,  " जाके पैर ना फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई " ।

खैर... घर से बाहर पहला कदम रखते ही कुछ बूंदों ने हौले से स्वागत किया, याद आया बचपन से ही तो सुनते आएं हैं...15 अगस्त को बारिश जरुर होती है। आज़ादी का दिन... इतनी खूबसूरत शुरुआत... और ऑफिस तक का सफर उससे भी ज्यादा खूबसूरत। साफ-सुथरी , बारिश से धुली हुई लगभग खाली सी सड़कें । जगह-जगह तैनात जवान... कहीं बैरिकेडिंग, कहीं पैदल गश्त... कहीं मोटरसाइकिल से पैट्रोलिंग, तो कहीं सायरन बजानी पुलिस की गाड़ियां। कार सिर्फ बैरिकेड्स पर रुक रही थी या फिर सिग्नल्स पर, इसके अलावा तो लगा जैसे सालों पुरानी दिल्ली वापस से लड़कों पर लौट आई हो ( सड़कें हालांकि बेहतर , लेकिन भीड़ नदारद) 

हां यमुना बाज़ार पर जरुर ब्रेक लगाने पड़े ... कुछ सज्जन वहां रोज़ की ही तरह दीन-दुनिया से बेखबर सड़क पार कर रहे थे, आप वक्त रहते देख पाएं तो आपकी किस्मत नहीं तो  ... 
आज कोई रॉन्ग साइड से गाड़ी नहीं चला रहा था... बीच फ्लाई ओवर  पर कहीं भी ट्रक-टैम्पो रोक कर कागज़ों की जांच-पड़ताल  नहीं हो रही थी ।  
आज सभी लोग ट्रैफिक सिग्नल्स को फॉलो कर रहे थे। हैरानी हुई ना सुनकर , आज़ादी का दिन औऱ लोग नियम-कायदों से चल रहे थे । 
आपने वो टैम्पो जरुर देखे होंगे ... ( रिंग रोड पर या फिर वो शहर का कोई भी हिस्सा हो सकता है) जो सुबह-सुबह तेज़ रफ्तार से आपके सामने से निकल जाते हैं , जिनमें ठूंस-ठूंसकर मुर्गे भरे होते हैं, पिंजरे में कैद मुर्गे रोज़ मिलते जरुर थे लेकिन बताते नहीं थे कि मंजिल कहां हैं ।  रुटीन में बदलाव था, आज शायद वो भी आज़ाद थे,  वो टैम्पो कहीं नहीं थे और ना ही वो स्कूल वैन्स जिनमें छोटे-छोटे बच्चे भी कुछ उसी तरह से ठूंसे गए होते हैं। पीले रंग वाली वो स्कूल बसें भी नहीं थी जो पूरी सड़क के किसी भी हिस्से पर उसी रफ्तार से चलती है जो ड्राइवर की मर्जी होती है और जिनके पीछे बड़े करीने से लिखा होता है कि " अगर मैं गलत या खतरनाक तरीके से गाड़ी चला रहा हूं तो इस नंबर पर फोन कर बताएं " । जाने कितने ड्राइवर सही ड्राइविंग करते होंगे, कितने लोग फोन करते होंगे और कितने नंबर सही होंगे। टीवी में दिखाए जाने वाले विज्ञापन की तरह हवा से बातें और स्टंट करते वो बाइक सवार कहीं नहीं थे ।  

आज छुट्टी होती है, लिहाजा ऑफिस में बॉस लोग अमूमन नहीं आते हैं, बाकी उनकी मर्जी , अरे बॉस हैं भई। 
आज़ादी का दिन है वो मना सकते हैं तो हम भी मना सकते हैं । कैसे और कितना ??? ये भी मत पूछिए और फेस टू फेस तो बिल्कुल नहीं । 

इन सब के बीच लाल किले पर शान से लहराता तिरंगा... और स्वतंत्रता दिवस समारोह में शामिल हज़ारों लोग। आसमान से छलकती ओस सी बूंदों सी बारिश की फुहारें और और बादलों के पार जाते सैकड़ों-हज़ारों रंग बिरंगे गुब्बारे। चप्पे-चप्पे पर मुस्तैद जवान ... औऱ संगीनों के साए में मनाया जाता आज़ादी का ये दिन। पुरानी दिल्ली इलाके में  ग्रीन सिग्नल का इंतज़ार करती हर रंग हर आकार प्रकार की पतंगें और उड़ने को बेताब बैठे मुंडेरों पर सफेद रंग के कबूतर। 

सच ! कुछ खास ही होता है आज के दिन का अहसास...
आज़ादी का अहसास... 
सुरक्षा का अहसास ... 
हवाओं में घुला खुलापन...
भीगी-भीगी सुबह की नमी का अहसास...
और हां...
दिल्ली में रहने का अहसास ...
देश की राजधानी ... 
हमारी दिल्ली, साफ-सुथरी दिल्ली, स्वच्छ दिल्ली... सुरक्षित दिल्ली

काश ये सभी अहसास एक साथ हमेशा के लिए रह पाते । किसी अहसास पर कभी कोई अलर्ट हावी हो जाता है, तो कुछ अहसास रोज़ाना की भीड़भाड़ में कहीं खो जाते हैं ... हम से ज़्यादा हमारा ये शहर इन सब का आदी हो चुका है , इन अहसासों के खो जाने का ... लेकिन आज़ादी का दिन है, और इससे बड़ा अहसास क्या आप सुझा सकते हैं... इस अहसास की कीमत हम चाहकर भी नहीं चुका सकते लेकिन हां इसे संजो कर रख सकते हैं, सहेज कर रख सकते हैं... हमेशा के लिए... हर कीमत पर ...

बुधवार, 7 अगस्त 2013

. . . मैं एक्सट्रा इमोशनल नहीं हूं . . .

 " याचना नहीं अब रण होगा ... जीवन जय या कि मरण होगा "
आदरणीय दिनकर जी ने किस परिप्रेक्ष्य और किस मनोस्थिति में जाने अपनी कौन सी मनोदशा इस रचना के माध्यम से कागज पर उतारी होगी... लेकिन पढ़ने के बाद अक्सर इसकी जरुरत जिंदगी में महसूस जरुर होती रही है । कम पढ़ा लिखा हूं... हिंदी पढ़ने का सौभाग्य दसवीं तक ही मिला, इन पंक्तियों को शायद तभी पढ़ा होगा लेकिन खून आज भी खौल उठता है ... क्यों ??? क्योंकि वो किसी नीति , कुनीति , विदेश नीति, राजनीति या दलगत सुभीति का मोहताज नहीं है ... खून देखकर कनपटी की नसें तमतमा उठती है .... रुधिर प्रवाह दुगने वेग के साथ इमोशंस को अपने साथ अपने चरम तक ले जाता है ....
लेकिन आखिर कब तक हम इन्हें सिर्फ रुटीन ट्रीटमेंट देते रहेंगे ...  सीमा पर पांच जवान शहीद हो गए ... बॉर्डर पर अलर्ट ... संसद में चर्चा...हंगामा... नेताओं के बयान... पब्लिक की प्रतिक्रिया ... गली-सड़कों -मोहल्लों-घरों में बातें ... बसों-मेट्रो-ट्रेनों में बहस ... अखबारों में एक बड़ी खबर ... हेडलाइन स्टोरी ... बैनर ... और टेलीविजन ... ब्रेकिंग न्यूज़.... लगातार लाइव.... स्टूडियो गेस्ट, डिस्कशन .... ये खबर है, बहुत बड़ी खबर ... लेकिन कब तक जब तक कोई इससे बड़ी खबर नहीं आ जाती है  ... लेकिन ये सिर्फ खबर नहीं है... बयान नहीं है ... नारे नहीं हैं ... कोई मौका नहीं है अपनी राजनीति चमकाने का ... ये हकीकत उन जवानों की है जो जान हथेली पर रखकर दिन-रात हमारी हिफाजत करते हैं । चाहे वो देश की सीमा हो या देश के भीतरी हिस्से , आपकी और हमारी हिफाजत की यही हकीकत है । 
बात हम आंकड़ों और उदाहरणों की नहीं करेंगे, उनमें तो आम आदमी उलझ कर रह जाएगा ... आंकड़े हर काम की चीज़ की ही तरह दो ही काम आते हैं या तो वास्तव में इस्तेमाल में लाने के या फिर लोगों को बरगलाने के ।  आज़ादी के बाद से ऐसा कितनी बार हो चुका है और किसने क्या कदम उठाए, ये सर्वविदित है ... हमारा काम नहीं है , हमें बात नीतियों पर करनी होगी, कड़े फैसले लेने होंगे, सरकार जिसकी भी हो , सत्ता जिस किसी भी दल के हाथ में हो, किसी जवान की शहादत पर सियासत राजनीति नहीं है ... पतन है । बयान लगातार आ रहे हैं ... नेता हो ... अभिनेता हो ! रक्षा विशेषज्ञ हो ... या फिर स्वयंभू एक्सपर्ट । मेरे जैसे अस्तित्वहीन पात्र तो बस सार्थकता और बौधिक्ता के अभाव में मूकदर्शक बने बैठे हैं ... कि हां अब ऐसे कदम उठाए जाएंगे कि कोई हमारे देश की तरफ आंख उठाकर देखने का दुस्साहस तक नहीं करेगा ।
दिल्ली में रहता हूं ... नौकरी नोएडा में है ... तो कुछ चीजें शेयर करना चाहता हूं , सीपी में हर साल की तरह इस साल भी सेल लगी हुई है । दिल्ली-एनसीआर के हर बड़े मॉल में हर छोटे-बड़े ब्रांड पर 50-60 % तक का डिस्काउंट चल रहा है। अट्टा मार्केट में भी भीड़ कम नहीं है तो राजौरी गार्डन, तिलक नगर , रोहिणी, साउथ एक्स, जीके ... हर जगह यही हाल है । लोग मोमोज़-नूडल्स उसी चाव से खा रहे हैं तो छोले भठूरे , गाल गप्पे, डोसा-उत्तपम भी तमाम इटैलियन फैंच क्विजीन के आगे ही चलते नज़र आएंगे ।
हम लोग बाते चाहें जैसी भी कर लें ... जिंदगी करीब करीब यही जी रहे हैं, अपने अपने घरों में ...अपने अपने दड़बों में ... अपने अपने महलों में ...अपने अपने दायरों में ... अपने अपने परिवेश में ... अपने अपने कम्फर्ट ज़ोन में ...
लेकिन सीमा पर जो जवान तैनात हैं या देश के भीतर भी दुर्गम औऱ खतरनाक इलाकों में जिनकी पोस्टिंग है, वो ऐसी कितनी सेल, सैर-सपाटे का मज़ा ले पाते हैं ... ऐसे कितने स्वाद, ज़ायके, चटखारे उनको याद रहते हैं ... कुछ किस्मत वाले होते हैं तो वो ऐसे हर लम्हे को सालों तक यादों में सहेज कर रखते हैं , तब तक जब तक कोई और खूबसूरत लम्हा उसकी जगह नहीं ले लेता । उन्हें चोट लगती है तो छोटी-मोटी चोट, बीमारी का ज़िक्र तो वो घर पर करते भी नहीं हैं, घरवाले नाहक ही परेशान होंगे । बस एक मैसेज ... कुछ दिन बात नहीं हो पाएगी, या फिर कभी कभी तो वो भी नहीं । घरवाले या तो सिर्फ इंतज़ार करते रहते हैं या फिर कयास लगाते रहते हैं ।  लोग कहते हैं फौज को उसी हिसाब से सुविधाएं भी तो मिलती हैं... जी हां मिलती हैं, लेकिन जितनी मिलनी चाहिए शायद उतनी नहीं मिलती । एक फौजी ... फिर चाहे वो एक जवान हो या ऑफिसर ... जब वो घर आता है तो हर एक लम्हे को एक पूरी जिंदगी सरीखा जी लेना चाहता है । इन लम्हों को मैने देखा है ... महसूस किया है ... जिया है ... 
एक बार एनडीए के लिए मैने भी कोशिश की थी, क्लीयर नहीं हुआ... इलाहाबाद... लास्ट अटेम्ट था, बस कुछ दिन वहां जीने को जरुर मिले, औऱ कुछ यादें मिलीं जिंदगी भर के लिए। 
मुझे अफसोस है कि मै एनडीए क्लीयर ना कर सका ... लेकिन किसी माता-पिता को ये अफसोस नहीं होना चाहिए कि उनका बेटा फौज में क्यों गया । किसकी गलती की सज़ा उनके बेटे या बेटी ने भुगती । आखिर क्यों पड़ौसी मुल्क जब चाहे ऐसे घिनौने कृत्य को अंजाम देते हैं और हम लोग चंद दिन बातें करके खामोश बैठ जाते हैं ... बात यहां देश की संप्रभुता और अखंडता के साथ साथ देशवासियों की भी है ... शहादत पर सियासत हमें नहीं चाहिए ... इंटेलेक्चुअल जुगाली की एक किस्म खरपतवार की तरह फली फूली है ... हमें वो भी नहीं चाहिए ... समस्या क्या है हम सभी जानते हैं ... सालों से जानते हैं ... हमें व्याख्यान नहीं चाहिए ... कोरे बयान नहीं चाहिए... हमें इस समस्या का समाधान चाहिए ।

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

सावधान ... बयानों में गुम हैं समाधान

" लड़ाई बच्चों का खेल नहीं है " ...
 " उनसे पूछो की उनकी सरकार के वक्त ऐसे कितने मामले सामने आए थे " ...
 " सरकार को जरुरी कदम उटाना चाहिए " ...
" हम कबूतर उड़ाते रहते हैं और वो हमारी सीमा के अंदर आकर कत्लेआम मचाते रहते हैं " ...
 " भावनात्मक बातें हो रही हैं हमें मामले को समझने को जरुरत है " ... 
" पूरा देश शहीदों के परिजनों के साथ है " ...
 " टेलीविजन चैनलों पर युद्ध की बात करना आखिरी विकल्प" ... 
" जब कोई क्रिया होती है तो उसकी प्रतिक्रिया होती है "
 " ये युद्धविराम का उल्लंघन है "
 " हमारी विदेश नीति में बदलाव की जरुरत है "
 " आप विदेश नीति की बात करते है हमारी तो नीति ही नहीं है "
 " बातचीत बंद नहीं हो सकती ये तो चलती रहनी चाहिए लेकिन उसका तरीका बदलना होगा "
 " हमें इंटरनेशनल दबाव बनाने की जरुरत है " 
" बयान पर बयान लेकिन समाधान कब " 
***
--- पुंछ में पांच जवानों की हत्या ... 
सीमा में फिर घुसपैठ ... 
कुछ वक्त पहले काटे थे जवानों के सिर
हां ... याद तो है ... 
कारगिल से अब तक क्या सीखा हमने... 
जवानों की शहादत...
और शहादत पर होती सियासत ...
सब देखा है हमने  ....
आखिर क्या मायने रखती है एक जवान की जान ...
 शायद ... ' मेकअप ' के साथ ... चंद अदद बयान ...