रविवार, 21 जून 2015

एक पत्रकार की मौत

पत्रकार... व्यवस्था/तंत्र का एक बहुत जरूरी हिस्सा होते हैंलेकिन ये जरूरी नहीं कि व्यवस्था/तंत्र भी उन्हें उतना ही जरूरी समझे। जरूरी होना और जरूरत होना, ये दो अलग-अलग भाव हैं ...
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वैसे बात सिर्फ पत्रकारिता की नहीं है,  जिन लोगों में ये हुनर होता हैवो कहीं भी किसी भी व्यवस्था में अपने आप को जरूरी साबित कर लेते हैं। ऐसे मामलों में कई अपवाद भी देखने को मिलते हैंकुछ लोग अपनी प्रतिभा के बलबूते पर अपनी जगह बनाते हैं तो कुछ लोगों का हुनर खुद के महत्व को मनवाना और अपनी काबिलियत को स्थापित कर लेना भी होता है।

पत्रकार जगेन्द्र का इन सब बातों से सीधे-सीधे कोई लेना-देना नहीं हैलेकिन एक पत्रकार होने के नाते वो भी स्वयं इस व्यवस्था/तंत्र का ही हिस्सा रहे। उनकी दर्दनाक मौत आम जनता और स्वयं पत्रकार बिरादरी के सामने कई अहम सवाल छोड़ गई है। आखिर उनकी मौत का सच क्या है, एक सभ्य समाज में इस तरह का अमानवीय कृत्यअक्षम्य है। क्यों किया गया, किस लिए किया गयाकैसे अंजाम दिया गया... किसके लिए किया गया... सवाल तमाम हैंलेकिन दरिंदगी की तमाम हदें पार करके ऐसे अपराध को अंजाम देने वाले लोग यकीनन इंसान तो नहीं हो सकते। कानून के साथ-साथ ये लोग इंसानियत के गुनहगार है।
कानून पर भरोसा हमारी सोचदिनचर्यापरवरिश और पेशे का हिस्सा है। भरोसा है जगेन्द्र को न्याय जरूर मिलेगा ठीक है आप जांच कराईए... तसल्लीबख्श तरीके से जांच कराईए,  आप पूरी तरह आश्वस्त हो जाइए कि कौन दोषी है और कौन निर्दोष। पूरे होशोहवास में कोई नहीं चाहता कि किसी निर्दोष को सज़ा मिले लेकिन जिसने जुर्म किया है सज़ा उसे कड़ी से कड़ी मिलनी चाहिएऐसी सज़ा जो एक नज़ीर साबित हो। 
जगेन्द्र सिर्फ एक पत्रकार थेएक मामूली पत्रकार ... वो भी शहर और सत्ता से दूर ... पहले तो वो खुद एक छोटी से खबर बन कर रह गए। ऐसे में एक छोटी सी खबर जगेन्द्र को जरूरत वाले भाव का पत्रकार जगह-जगह खोजता रहा... अखबारों में , टीवी पर, खबरों में , चर्चा में, लोगों में ...चेहरों में ... कहीं से खबर मिले... क्या वाकई एक पत्रकार को जिंदा जलाने की खबर में सच्चाई है, खबरों की जिंदगी जीने वाला पत्रकार मौत की इस खबर पर शायद भरोसा ही नहीं करना चाहता था, आखिर करता भी तो कैसे...
जगेन्द्र की मौत का सच जनता के सामने आना भी उतना ही जरूरी है जितना पत्रकार बिरादरी के लिए, जितना जरूरी वो कानून व्यवस्था के लिए है, उतना ही जरूरी इस व्यवस्था में आस्था और विश्वास के लिए है...
जाने से पहले जगेन्द्र कह रहे थे... मुझे पीट लेते, ज़िंदा क्यों जलाया जगेन्द्र अब जिंदा नहीं है... लेकिन उनका ये सवाल ज़िंदा है और जब तक उन्हें इंसाफ नहीं मिलता ये सवाल यूहीं ज़िंदा रहेगा।



(ये सवाल उन सभी लोगों के लिए भी है, जो शरीर से ज़िंदा हैं लेकिन आत्मा, ईमान, आत्मसम्मान और सोच जैसी तमाम कसौटियों के मुताबिक एक अर्से से मृतप्राय हैं, जो जरूरत से बढ़कर शायद जरूरी... बेहद जरूरी हो गए हैं)

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