शनिवार, 27 जून 2009

हम ऐसे जीते हैं...

मेरे दफ़्तर में सीढ़ियां नहीं हैं...
लोग लिफ्ट से चढ़ते हैं...
हमारी इस दुनिया में ...
ताज़ी हवा के लिए खिड़कियां नहीं है...
हम शीशे के पार...
पेड़ों के पत्तों को हिलते हुए देखते हैं...
शीशे के पार देखकर...
सर्दियों में धूप सेकते हैं...
पहली बरसात के बाद,
माटी की सौंधी महक को...
शीशे के पार महसूस करते हैं...
लोगों को भीगते हुए देखते हैं...
तेज़ हवा के झौंकों को देखकर...
डरते हैं...कांपते हैं...
अपने शरीर पर...
आंधी में उड़ते रेत की जमती परतों से झल्लाते हैं...
इतनी उंचाई पर सामने से आते बादलों को देखकर...
अक्सर मेंढ़क जैसा बर्ताव भी करते हैं...
डैने फैलाकर आसमान में मुंह चिढ़ाती घूमती चीलों से जलते हैं...
फिर उसी उंचाई पर दिखता है हवा में लटका एक इंसान...
जो उन शीशों को साफ करता रहता है...
ताकि हम बाहर की दुनिया को देखते रहें...जीते रहें...
जब-जब उससे आंखें मिलती हैं...
हम वापस अपनी सीट पर आकर बैठ जाते हैं...
हम वापस अपनी सीट पर आकर बैठ जाते हैं...

शनिवार, 20 जून 2009

विडंबना

(एक पुरानी रचना है, आज भी सोचने पर अक्सर मजबूर कर देती है)...

बाल बेतरतीब थे...
अटपटी सी चाल चलते,
रास्ते पर बिखरे कंकड़ों को ठोकर मारते,
अनमने से यूंही,
जाने किस उधेड़बुन में,
बेतहाशा... पागलों की तरह,
अपने आप से बातें करते,
हम निरंतर चले जा रहे थे...
कि अचानक अपने खुद के कदम नापती,
मेरी आंखों की पुतलियां,
विस्मय से फटने को आतुर हो उठी,
एक अजीब सी घुटन,
मेरे विचारों का दम घोंटने लगी,
मुझे लगा कि मेरा व्यक्तित्व टूटकर,
कांच की किरचों के समान ,
मेरे भीतर,
मुझे कहीं लहुलुहान कर रहा है,
अचानक अपनी ही नज़रों से गिर जाने का दंश,
पल-प्रतिपल टीसने लगा,
औऱ डबडबा आई आंखों में गहराते शून्य के बीच मैने देखा,
चीथड़ों में तन ढके एक नंग-धड़ंग बालक,
जो अभी हाल-फिलहाल में चलना सीखा होगा,
अपने नेत्रहीन-ढांचामय पिता का हाथ थामे,
ठेले पर सब्ज़ियां बेचकर,
अपने हिस्से के अभावों से जूझ रहा था,
और शर्मसार मैं...
पढ़ाई, खेल और करियर के नाम पर ,
जन्म से ही मां-बाप का खून चूसकर बड़ा हुआ,
जब उन्होंने जेबखर्च बढ़ाने से इनकार कर दिया,
तो जी भरकर उन्हें कोसने के बाद,
मूड ठीक करने के लिए,
नुक्कड़ के पनवाड़ी से उधार लेकर,
एक मशहूर पब की तरफ,
अंधाधुंध दौड़े चला जा रहा था...

सोमवार, 15 जून 2009

एक मजदूर (मजबूर) की मौत

" कैलाश को अस्पताल में दाखिला तो मिला लेकिन इलाज के लिए नहीं, पोस्टमॉर्टम के लिए" जैसे ही एक साथी रिपोर्टर से पीटीसी की ये चंद लाइनें सुनी... सभी एक दम से उछल पड़े... वाह गुरु ! खबर बेच दी आपने... वर्ना किसको पड़ी है कि एक मज़दूर की मौत की खबर चलाए वो भी एक सरकारी अस्पताल के बाहर...भले ही वो इलाज के इंतज़ार में तड़प-तड़प कर मर जाए... एकदम ही डाउनमार्केट खबर थी...लेकिन हां ... अब इसको ताना जा सकता है।
लेकिन खबर तो थी... कैलाश को तीन-तीन सरकारी अस्पताल ले जाया गया लेकिन बचाया नहीं जा सका। कहीं इलाज की सुविधा नहीं ...तो कहीं इलाज करने का वक्त ही नहीं था... अब कैलाश भी कितना इंतज़ार करता... एक मज़दूर कितना भी सख्त जान हो लेकिन बिना इलाज बच पाना उसके लिए भी मुमकिन नहीं ।
जब खबर चली तो सवाल-जवाब भी हुए... तुरंत जांच का आदेश भी आया... एक मज़दूर की मौत के मामले की जांच... लेकिन एक दिन बाद ही बयान भी आया कि इस मामले में सरकारी अस्पतालों की तरफ से कोई लापरवाही नहीं बरती गई। ठीक है हम मान लेते हैं कि लापरवाही नहीं बरती गई लेकिन फिर कौन है इस मज़दूर की मौत का जिम्मेदार ?
मौत पर ये सवाल शायद ज़िंदगी से भी बड़ा हो गया है ... नहीं तो ' कैलाश ' खबर नहीं बनता... वक्त पर इलाज हो गया होता तो एक गुमनाम मज़दूर सुर्खियों में भी नहीं आता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, कैलाश इलाज का इंतज़ार ही करता रह गया... अस्पताल के बाहर स्ट्रेचर पर पड़ी उसकी लाश को अस्पताल में दाखिला जरुर मिला ... हां अगर कैलाश को वक्त रहते एडमिट कर लिया जाता तो उसका इलाज होता पोस्टमॉर्टम नहीं...

शुक्रवार, 12 जून 2009

कवि की कल्पना... पार्ट-2 (मोहब्बत की मेट्रो)

(मोहब्बत की मेट्रो...ये नाम दिया बंधु जिंदल साहब ने। दरअसल कुछ महीने पहले मैं रुटीन के मुताबिक ऑफिस रहा था, डीयू से मेट्रो पकड़ी। कश्मीरी गेट पहुंचा तो भीड़ का रेला ट्रेन को धकियाते भीतर घुसा। इस रेले में अपने जिंदल साहब भी थे, डिब्बे में उनकी नज़र एक जोड़े पर पड़ी, फिर मुझ पर... जिंदल साहब के अंदर छुपा कवि जागा औऱ उन्होंने गढ़ दिया एक नाम ; नए-नए कैचवर्ड-स्टिंग बनाना/सुझाना इनकी दिनचर्या में शुमार है ;नाम दिया...मोहब्बत की मेट्रो)

...देहात की मेट्रो के सफर के बाद मैं जैसे भौचक्का रह गया था... इतना सब देखने की ना तो कभी कल्पना की थी... और ना ही कामना। घर से मात्र डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर मेट्रो स्टेशन होने के बावजूद अब मैं बसों से ज़्यादा सफर करने लगा। सड़कों पर ट्रैफिक बेतहाशा बढ़ चला था...डीयू से सीपी पहुंचने के लिए दो घंटे से भी ज़्यादा वक्त लगने लगा था। लेकिन बहुत दिनों तक ऐसा नहीं चल पाया। एक दिन हिम्मत कर मैने फिर से मेट्रो से जाने का फैसला किया।

घर से अक्सर मैं पैदल ही मेट्रो स्टेशन तक चला जाया करता था... स्टेशन तक का सफर तो वही जाना पहचाना सा ही था... हां जब स्टेशन पहुंचा तो माहौल जरुर बदला-बदला नज़र आया।

इमारत की सीढ़ियों के अलावा जहां-जहां भी बैठने लायक जगह थी, प्रेमी जोड़े पूरे साज-श्रृंगार के साथ बैठे हुए थे। अब आप कहेंगे कि इसमें नया क्या है...बैठते तो पहले भी थे...बैठते रहे हैं और बैठते रहेंगे। लेकिन मैने जो देखा वो आपको बताता हूं। बैठने लायक सभी जगहों पर बड़े-बड़े अक्षरों में साफ-साफ लिखा था कि ये जगह प्रेमी जोड़ों के लिए आरक्षित है। मुझे जानने की उत्सुकता हुई कि आखिर ये माजरा क्या है...लेकिन आसपास नज़र दौड़ाने पर कोई भी सिंगल आदमी मुझे नज़र नहीं आया। थोड़ा साहस जुटा कर मैने एक शांत से दिखने वाले अधेड़ उम्र के अधपके बालों को सहेजे एक प्रेमी जोड़े से आखिर पूछ ही लिया।

मेरा सवाल सुनते ही उनकी आंखों में चमक आ गई। बड़े प्यार से वो बोले...जनाब दुनिया में कुछ भी ऐसे ही नहीं मिलता है। बहुत संघर्ष के बाद हम प्रेमियों ने अपनी मांगें मनवाई हैं। हमने मेट्रो जाम की ...खिड़कियों के शीशे तोड़े... ड्राइवर की पिटाई ...जैसे तमाम हथकंडे अपनाए तब कहीं जाकर हमें प्यार का ये अधिकार मिल पाया है।

कलियुग के प्यार की इस महानता पर नतमस्तक हो मैं आगे बढ़ चला और सीधा प्लेटफॉर्म पर ही जाकर रुका। औऱ वाकई हर जगह मुझे बस प्यार ही प्यार औऱ उस प्यार में डूबे जोड़े ही नजर आए...ना उम्र की सीमा थी औऱ ना जन्म का बंधन... हर एक बेंच प्रेमी जोड़ों के लिए आरक्षित थी... औऱ बैठने की उस बेंच का आज के युग के मल्टीटॉस्कर प्रेमी हरसंभव इस्तेमाल कर रहे थे। पहले जो गार्ड सीटी बजाकर ट्रेन के आने पर लोगों को सावधान किया करता था वो आज भी वही काम कर रहा था, अब वो प्रेमातुर जोड़ों को ट्रेन के आने-जाने की सूचना दिया करता था, घर-दफ़्तर पहुंचने में उनकी मदद करता था ताकि वो समय रहते सुविधानुसार प्यार कर सकें।

इतने में ट्रेन आई और सभी बड़े सलीके से पहले ट्रेन से उतरे फिर उसके बाद लोग उसमें चढ़े। चढ़ते-उतरते वक्त लड़कियों-महिलाओं से कहीं कोई छेड़खानी नहीं, कोई धक्कामुक्की नहीं। हालात वाकई बदल गए थे। ट्रेन के अंदर भी दो लोगों के बैठने की क्षमता वाली कॉर्नर सीट प्रेमियों के लिए आरक्षित थी, हालांकि जगह की कमी के कारण ज़्यादा लोगों को उस पर बैठना पड़ रहा था। मेट्रो का ये वातानुकूलित प्यार अब मुझे रास आने लगा था।

इतने में ही हम जा पहुंचे सीपी । यहां अब एक बड़ा सा लवर्स लाउंज बना दिया गया था, जहां आम और अकेले आदमी के आने की सख्त मनाही थी। साथ ही चस्पां थी एकदम सख्त चेतावनी Trespassers will be prosecuted –

यहां एक और बात पर मैने गौर किया। बैठने की जितनी भी बेंचें थीं...सब पर दो ही सीटें थीं। टोकन डालकर और मेट्रो कार्ड दिखाकर अब दो लोग साथ में स्टेशन एरिया में धुस सकते थे, यानि हाथ में हाथ डाले लव बर्ड्स इकट्ठे इंट्री करते हैं, पहले जैसा नहीं कि कि एक का कार्ड रीड नहीं हुआ तो किसी का टोकन ...और दूसरा उस पार इंतज़ार करता ही रह गया।

वैसे तो कॉलेज आने-जाने का टाइम तो कोई फिक्स होता नहीं है...लेकिन मेट्रो ने भी अपनी यू-स्पेशल सेवा शुरु कर दी थी जो डिपो में ट्रेन के सर्विस पर जाने के टाइम तक भरी रहती थी।

प्लेटफॉर्म पर लगे मॉनीटरों पर अब जनहित में जारी संदेशों की बजाय सुमधुर प्रेम गीत फुल वॉल्यूम पर बज रहे थे। प्रेमी जोड़े ट्रेन का इंतज़ार करते हुए संगीत में खोए हुए थे तो गार्ड तांक-झांक करने वालों को बड़े ही सलीके से समझा रहे थे। वहीं अपना आम औऱ अकेला आदमी जहां कहीं भी था सहमा-सहमा ही नज़र आ रहा था। तभी मैने कुछ प्रेमी जोड़ों को हाथों में पोस्टर बैनर लिए लवर्स लाउंज के बाहर नारेबाज़ी करते देखा। इन लोगों की मांग थी कि चूंकि इनका प्यार मेट्रो में पर्यटन को बढ़ावा देता है लिहाज़ा प्यार करने वालों या फिर कम से कम प्यार करते दिखने वालों के लिए रियायती दरों पर सफर की सुविधा होनी चाहिए। साथ ही मेट्रो को बेस्ट ज़ोड़ा ऑफ द वीक जैसे कॉन्टेस्ट का समय-समय पर आयोजन करना चाहिए...जैसी तमाम मांगों को लेकर ये लोग अब ट्रैक पर जा उतरे थे... इतना सब देखकर अब तक मैं इमोशनल हो चला था...मैने अभी उनका साथ देने का मन बनाकर उस ओर कदम बढ़ाया ही था कि दो-तीन जोड़ी आंखों ने मुझे हिकारत भरी नज़र से देखा... वो लोग मुझे आम और अकेला समझ रहे थे... इतने में मेरे फोन की भी घंटी बजी और मैं भी मुस्कुराता हुआ लवर्स लाउंज में जा पहुंचा ...वहां कोई मेरा भी इंतज़ार कर रहा था...

गुरुवार, 11 जून 2009

कवि की कल्पना ...

सुबह के 4 बज रहे हैं... इतनी तड़के भी स्टेशन पर जैसे भगदड़ मची हुई है। स्टेशन के गेट पर जबरदस्त पहरा है...एनएसजी तैनात है...स्निफर डॉग जहां-तहां सूंघ रहे हैं...औऱ पब्लिक जैसे एक ही ट्रेन से निकल जाने को बेताब है। दिल्ली जैसे शहर में सुबह-सुबह इतने लोगों को इतना व्यस्त देखने की वैसे भी आदत नहीं है। खैर, प्लेटफॉर्म पर बड़ी बेसब्री से ट्रेन का इंतज़ार हो रहा है, जैसे ही ट्रेन आने की उद्घोषणा हुई, ये बेसब्री फिर से भगदड़ में तब्दील हो गई अब तक मैं नींद के खुमार में भागती दुनिया का आधा सच ही देख पा रहा था कि अचानक ट्रेन की छत पर सवार होने की फिराक में कूदते-फांदते एक सज्जन से मैं टकरा गया। वो सज्जन तो अपने सामान सहित छत पर जा बैठे लेकिन मैं पूरा माहौल देख कर चकरा गया।

एकदम चमचमाती ट्रेन ... ट्रेन की चकाचक कांच की खिड़कियों के बाहर कुंडे लटके हुए थे, जिनपर दूधिए पूरे अपनेपन के साथ दूध के डल्लू-कनस्तर लटका रहे थे। पूरी ट्रेन मानो मदर डेयरी बनी हुई थी, दूध सेवन प्रोत्साहन का परफेक्ट सरकारी विज्ञापन। ट्रेन की छत पर भी कुछ ऐसा ही नज़ारा था। सवारियां पूरी फुरसत में थीं, ताश के पत्ते फेंटे जा रहे थे...बीड़ियों का दौर...और बीच में रखा पंचायती हुक्का, यानि एकदम ही कम्फर्ट, घर जैसा आराम।ये शायद डेली पैसेंजरों वाली जमात थी। तभी मेरे कानों में किसी के चिल्लाने की आवाज़ पड़ी...गर्दन घुमाकर देखा तो एक साहब एनएसजी कमांडो से भिड़े हुए हैं। खालिस हरियाणवी भाषा में श्लोक पूरे प्लेटफॉर्म पर गूंज रहे थे। 'रै तू काल का छोरा, मेरे तै जबान लड़ावगा, घणा डीसी बणै है, तेरे जिसे छत्तीस म्हारे आगे-पाछे घूमैं हैं...तैने तो काल देख लूंगा ' जैसे अंलकृत वाक्य सुनकर लोग धन्य हो रहे थे। पूछताछ करने पर जो पता लगा वो और भी हैरान कर देने वाला था। दरअसल आजकल कुछ लोग चाहते हैं कि दूध उनके सामने ही निकाला जाए। अब गांव देहात में तो लोग घर पहुंच कर सामने दूध निकलवा भी लें लेकिन शहर में तो साहब भैंस को ही ले जाना पड़ेगा ना। लो साहब तो इस ट्रेन में भैंस को ले जाने की भी सुविधा है ...लेकिन सिर्फ आखिरी डब्बे में ...इस सुविधा के लिए एक घंटा पहले आकर बुकिंग करनी पड़ती है, वो साहब लेट हो गए तो बुकिंग नहीं हुई। लेकिन इतने में देखते हैं कि स्टेशन से बाहर कहीं भी कभी भी फोन कर के बुलाएं कैब सुविधा वालों की जगमग टाटा-407 में लदी भैंस जा रही है और शान से जा रहे हैं गाली प्रेमी वही सज्जन। भई दूध तो पहुंचाना ही है ना, उन्होंने तुरंत फोन बुलाया, कैब हाज़िर।

खैर हम वापस प्लेटफॉर्म पर आते हैं। भैंसो से भरा डिब्बा देखकर मैं हैरान था कि इतने में ताज़ा सब्जी ले लो की आवाज़ भी कानों में पड़ने लगी। ट्रेन में सब्ज़ी...देखा तो इससे अगला डिब्बा मानो फ्राइडे मार्केट बना हुआ था। बोरों में सब्ज़ियां औऱ उन बोरों से अंटा डिब्बा। पता लगा कि गांव से ताज़ी सब्ज़ियां लेकर आज़ादपुर मंडी पहुंचाई जाती हैं और साथ ही बोहनी के लिए ट्रेन में ही बेचना शुरु कर दिया जाता है। एक बात और, बोरों पर आईएसआई की मुहर भी लगी थी...यानि आईएसआई मार्का सब्ज़ियां... सब्ज़ी वालों की खुसर-पुसर सुनी तो पता लगा कि आज कल ऑक्सीटॉक्सिन ब्रांड की सब्ज़ियां सबसे ज़्यादा मुनाफा दे रही है।

इतने में चाय गरम की आवाज़ सुनाई दी तो मैं सब्ज़ियों को छोड़ चाय की तरफ लपका...चाय ले लो चाय...गरमागरम चाय... बस यही कसर बाकी रही थी...वो भी पूरी हो गई। सुबह-सुबह चाय मिल जाए तो बस मज़ा आ जाता है। लेकिन इस चाय वाले छोटू के कपड़े मैले-कुचैले नहीं थे... एकदम अपटूडेट नीली वर्दी वाला - चाय वाला देखकर मैने दो रुपए टिप दे डाली तो अपने मॉडर्न छोटू ने आंखे तरेरते हुए दो रुपए मुझे वापस कर दस रुपए मेरी जेब में डाल दिए। वैसे आगे देखा तो पता चला कि पान-बीड़ी-सिगरेट आप जो मांगे...सब व्यवस्था ट्रेन में ...दाम थोड़ा ज़्यादा देना पड़ेगा... अब साहब मल्टीप्लेक्स में भी तो 10 का 50 में खरीदते हैं ना।

यहां तक तो सब ठीक था, लेकिन सीट पर बैठते ही मानो कयामत आ गई। मैं गलती से डेली पैसेंजरों की जमात में जा बैठा ...पहले तो उन्होंने जमकर मेरी धुनाई की और उसके बाद क्या करें औऱ क्या ना करें की लिस्ट मुझे थमाकर ट्रेन से बाहर ढकेल दिया। पूरे कागज़ पर सिर्फ यही लिखा था... डेली पैसेंजरों से कहीं भी पंगा मत लो... आंख उठाकर सामने देखा तो रिबन लगा मेट्रो स्टेशन का नया-नवेला बोर्ड मुझे मुंह चिढ़ा रहा था। विस्तार के तमाम चरणों के साथ मेट्रो अब देहात तक जा पहुंची है... शहरी देहात में मेट्रो का ये ग्रामीण अवतार शायद मेट्रो की परिकल्पना से भी आगे निकल गया। हां , स्टेशन का नाम नहीं बताउंगा, क्योंकि बाहर धकियाते हुए हाथ में थमाए कागज़ का खौफ अब भी मेरे ज़हन से निकल नहीं पाया है। ट्रेन कोई भी रहे मेट्रो हो या अपना देसी लोकल अद्धा...डेली पैसेंजरों का हर जगह यही अंदाज़ है। दिल को तसल्ली इस बात से मिली कि मेट्रो की छत पर बैठे लोगों ने जरुर जाते-जाते हाथ हिलाकर कहा...फिर मिलेंगे ।