गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

आदमी पर जब ऑफिस हावी हो जाता है

कलफ की तरह

चढ़ाता है वो चेहरे पर मुखौटे...

मुस्कान का मुलम्मा ...

हर रोज़ बदल जाता है

अफसोस ... ये सच है

वो इंसां तक नहीं रह पाता है ...

आदमी पर जब ऑफिस हावी हो जाता है ...

मर जाता है आंखों का पानी ...

ज़मीर की बेपर्दगी...

वो नज़रअंदाज़ किए जाता है ...

बिना रीढ़ के वो घिसटता है...

अक्सर अपनी ही नज़रों में गिर जाता है ...

आदमी पर जब ऑफिस हावी हो जाता है ...

बातों में राजनीति ...

हर पहलू में उसे शक नज़र आता है ...

हर आईना उसे धूर्त लगता है ...

वो खुद को पहले से ज़्यादा मक्कार पाता है ...

सोच की कंगाली मतलब क्या है ...

वो ये सोच ही नहीं पाता है...

एक घिसटने वाले जंतु के समान ...

वो तो बस लिजलिजा सा ... और घिनौना हुए जाता है ...

उसकी अप्रोच अब सैडिस्ट है ...

दूसरों के सुख ... अब वो बर्दाश्त नहीं कर पाता है ...

अब वो नौकरी को जीता नहीं है...

उसे जस्टीफाई करने में जुट जाता है ..

आदमी पर जब ऑफिस हावी हो जाता है ...

हां ...

आदमी पर जब ऑफिस हावी हो जाता है ...

कुछ की नियति ये कतई नहीं है ...

लेकिन जो निकृष्ट हैं...

आप गौर कीजिएगा ...

आदमी का इंसां ना रहना ...

उनकी किस्मत बन जाता है ...

मुझे अफसोस है ... मगर सच ...

वो कितना बेगैरत हो जाता है ...

आदमी पर जब ऑफिस हावी हो जाता है ...

आदमी पर जब ऑफिस हावी हो जाता है ...

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

प्लीज़ माइंड द गैप ...

"प्लीज़ माइंड द गैप "...
कृपया खाली जगह का ध्यान रखिए ...
"प्लीज़ माइंड द गैप " ...
मेट्रो की उद्घोषणा ...
और उद्घोषक पूरी कोशिश कर चुके थे ...
लेकिन वो जैसे किसी एयर बबल में कैद था ...
अपनी सोच का पुलिंदा ढोते हुए....
सावन के मेले सी भीड़ वाले ...
प्लेटफॉर्म पर भी अकेला खड़ा था...
मेट्रो के दरवाज़े के बीचोंबीच ...
जो बंद होने की कोशिश में था...
और बोगी का हर शख्स जैसे ...
यही रिपीट कर रहा था ...
"प्लीज़ माइंड द गैप" ...
और माइंड ना जाने किस उधेड़बुन में लगा था ...
वो अभी वहीं था ...
उसी जजमेंट की मीमांसा करने में लगा था...
और मन ही मन मुस्कुरा रहा था...
ठहाके लगा रहा था ...
बीच में कनखियों से आस पास देखता था ...
और फिर शून्य में ताकने लगता था...
उसे भी 3.30 का इंतज़ार था...
वो भी फैसले के इंतजार में था ...
लेकिन जब फैसला आया ...
तो वो हंस पड़ा ...
किसी चैनल पर उसने देखा और सुना...
अदालत ने रामलला के पक्ष में 2-1 से फैसला सुनाया है ...
बस वो तब से हंस ही रहा है ...
उसे लगा रामलला भी तभी से उसी के साथ चल रहे हैं...
वो दफ्तर की सीढ़ियों पर भी थे ...
रास्ते की भीड़ में भी ...
मेट्रो स्टेशन के एस्केलेटर पर भी ...
और इस बोगी में भी ,साथ ही हैं ...
अदालत के फैसले की उसी कॉपी के साथ ...
लेकिन अब भी वही आवाज़ गूंज रही है ...
"प्लीज़ माइंड द गैप "...
"प्लीज़ माइंड द गैप "...
औऱ वो देखता है ...
उसके जैसा एक और कोई है ...
जो इस वाले स्टेशन से ...
धक्का पेल भीतर घुसने की कोशिश में हैं ...
और उसके साथ भी रामलला हैं ...
फैसले की उसी कॉपी के साथ ...

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

ऐसे में कोई क्या करे ?

" नहीं यार मैं नहीं पूछूंगा ...
मेरा मन नहीं मानता ...
ये उस टाइप का लगता ही नहीं है "...
--- ' ये कैसे कह दिया आपने '...
"कभी बातें सुनी हैं आपने इसकी "...
' कभी ... हां कभी कभी ही तो बोलता है ...
जाने कौन घमंड पाले है ससुरा '...
" ये वो टाइप नहीं है यार... हम कह रहे हैं...
हम लोगों का क्लास अलग है "...
--- 'अरे टाइप-वाइप को छोड़ो गुरु ...
ई टाइप के चक्कर में हमारा हाईप बनते बनते रह गया '.....
(हा हा हा !!! ... पांच-छह लोगों के झुंड का सामूहिक अट्टहास)
सुनो बे !... यहां आओ !!!...
और फिर उन्होंने उसे धर दबोचा
और शुरु हुआ उसका पोस्टमॉर्टम...
--- सुनो जी बताओ तो ...क्या तुम लेनिन को मानते हो ?
क्या तुम कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों पर चलते हो ?
" बोलो जवाब दो "
क्या तुमने कभी कोशिश की है पिकासो को समझने की ?
मॉडर्न आर्ट के बारे में क्या सोचते हो तुम ?
एब्स्ट्रैक्ट आर्ट की समझ रखते हो तुम !!!
थिएटर हां ...हां !!!
... क्या जानते हो तुम रंगमंच के बारे में ?
क्या किसी संगोष्ठी में बुलाया गया है तुम्हें ?
--- बताओ...बताओ ...
किसी सेमिनार...परिचर्चा, परिसंवाद...
कभी इनसे साबका पड़ा है तुम्हारा ?
.... सवाल तीखे हो चले थे...
और सोच बेस्वाद...
दायरा बढ़ता जा रहा था...
और घेरा तंग होता जा रहा था...
वो अब झल्लाने लगा था...
और वे ...
औऱ बेतकल्लुफ होते जा रहे थे...
" चे "... हां तुम पर चे का असर साफ दिखलाई पड़ता है...
तुम्हारी ये टीशर्ट ... ये चे ही है ना ...
दो लोगों ने वो टी-शर्ट उतार ली ...
और बेहद करीब से उसका मुआयना किया...
लेकिन फैसला नहीं कर पाए...
कोई बात नहीं ...
' वैसे शक्ल से ही तुम ' अमुक कैंपस '
के ढाबा स्कॉलर लगते हो...
मैं पहले ही ना कहता था..
ये वहां उसी लेट-नाइट ढाबे पर खूब ठहाके लगाते देखा गया है '
बहुत खूब ...
एक फुसफुसाया...
--- " जनाब अकेले नहीं थे...
साथ में मैडम भी थी...
और दोनों वो कोने वाली झाड़ियों ...
के आसपास मृदा संरक्षण, संवर्धन के उपाय खोज रहे थे..
प्रकृति को काफी नजदीक से पढ़ रहे थे "
कईयों ने एक साथ खींसें निपोरी...
स्याले !!! ####****####
(कुछ बेहद भद्दे शब्द... और ध्वनियां ... )
"तभी तुम किसी को भाव नहीं देते हो " ...हां !!!
भाव से याद आया...
अभी उसी दिन ये किसी को
शेयर मार्केट के टिप्स भी दे रहा था...
बाज़ार भाव का भी ध्यान रखता है शायद
और कई सारे ' हूं '... अचानक से सुनाई दिए..
बाज़ार... शेयर मार्केट...
जरुर ये अमेरिका जाना चाहता है !!!
अब यहां अमेरिका कहां से आ गया ?
क्या तुम्हारी हमदर्दी रुस से है ?
वाह बेटा !!! वो मारा पापड़ वाले को ...
तभी तुम गूगल पर हां .... लगे रहते हो ओ हो हो हो !!!
ऐं ... उसने प्रतिवाद किया..
वो अब नीतियों पर उतर आए...
गाज़ा पट्टी ... उसका क्या ?
वियतनाम को तुम जायज ही ठहराते होंगे ?
इराक के वैपन ऑफ मास डिस्ट्रक्शन..
वो कहां रखे हैं ?
कुछ जानते भी हो ...
या कोरी हवाबाज़ी करते घूमते हो ?
अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति के क्या मायने हैं बंधु...
फिर विदेश नीति...सहमत हो ... इसकी नरमाई से,
क्या कश्मीर समस्या का हल है तुम्हारे पास ?
पत्थर फेंकने वाले चेहरों का सच जानते हो ना तुम ?
पाकिस्तान का ट्रीटमेंट ...जहन में रखे हो या नहीं ?
---बोलो---
रेड ड्रेगन... हा हां चीन...
है उसका तोड़ तुम्हारे पास ?
अजी हां... तोड़ !!!
ससुरे अभी गिरे पड़े जाएंगे ...
ड्रेगन की एक पुकार पर...
कब्जे पे कब्जा ... है किसी की हिम्मत जो चूं भी करे जाके ...
लेकिन कौन जाएगा ... मैने तो हामी भी नहीं भरी ?
फिर कौन और क्यों ?
--- न्यूज़ चैनल खबर कम दिखाते हैं..
यही कहते फिरते हो ना तुम...
वो क्या कहते हैं उनकी भाषा में...
पिल पड़े हैं उस खबर पर...
खेल जाओ प्यारे इससे पहले कोई दूसरा उस खबर को उठा ले...
कुछ जानते हो क्या होती है ,
ब्रेकिंग न्यूज ... या फिर कुछ भी चला दो ?
फुल स्क्रीन ...
हुंह... लोग आखिर यूंही सालों धूप में बाल सफेद कर पत्रकार नहीं बन जाते हैं..
समझे या नहीं...
निराला को पढ़ा है तुमने,
जानते हो अज्ञेय को,
प्रेमचंद... टैगोर ,
औऱ शेक्सपीयर को कैसे भूल गए आप,
की़ट्स की शैली ... उसकी कल्पना शक्ति... वो रस...
अरे तुमने क्या कभी सुना है इलियट का नाम ...उनकी ख्याति ?
हां .... हां ...
अब वो बोला ....
हां !!! मैं जानता हूं इन सबके बारे में ... शायद...
लेकिन उससे आपका क्या वास्ता ???
देखो तो जरा ...
वो झुंड धीमे से गुर्राया ...
---तेवर अब भी पेले पड़े हैं जनाब ...
बेटा ..." हम वो हैं जो सबकी नेकराय को एकराय बनाते हैं "
मतलब ... वो हैरान था !!!
*** झुंड अब थोड़ा सा इनफॉर्मल हुआ....
उसके कानों में फुसफुसियाते हुए बोला...
"शामिल हो जाओ इस झुंड में...
आ जाओ हमारे साथ....
आओ मिलकर रच डालें एक और क्रांति ...
आओ बौद्धिक विचारों का हवा दें...
दिशा दें... इन्हें इकट्ठा करें ... उन पर हावी हो जाएं ...
औऱ सब पर थोप डालें अपना मत ... अपनी सोच "
--- ज्ञान झाड़ना बंद कर झुंड अब ...
उसे पुचकारने के मोड में दिखा...
" राय रखना सीखो गुरु "....
हर मुद्दे पर ... हर अड्डे पर...
ये ससुरी राय रखना बहुत जरुरी हो गया है ...
पिछड़ जाओगे ... वर्ना ... समझे ...
चलो अभी चलते हैं... आज अभी के लिए इत्ता ही ...
(औऱ ठहाकों के साथ कदम भी धुंधले होते चले गए ...)
और वो
वो रुआंसा हो आया...
ये पहली बार नहीं हुआ था ...
उसे समझ ही नहीं आया
कि आखिर क्यों हर मामले में राय रखना...
आजकल का फैशन होता जा रहा है ? ? ?

शनिवार, 4 सितंबर 2010

वो सिर्फ एक शरीर है ...

एक अजीब सा गुनगुनाता हुआ सन्नाटा ...
सामान्य होने की कोशिश करती सांसें...
औऱ चेहरे पर जैसे उदासी की भाप लिए...
22 साल की वो ...
और उसका साथी ....
पुरानी ब्लैक एंड व्हाईट फिल्मों सरीखा...
फुल स्पीड से लहराता सीलिंग फैन...
और नीचे लेटी उस लड़की के शरीर पर...
प्रकाश और छाया का अद्भुत खेल...
साथ ही समानांतर दौड़ते...
उमड़ते भाव ...
तभी सन्नाटे को चीरती एक उद्घोषणा ...
औऱ किसी शापित आत्मा सी वो खिंची चली गई...
उस दिशा में ...
जहां से पुकारा गया उसका नाम...
लेकिन वो अभी भी वहीं थी ...
बेसुध...बदहवास ... निरीह सी ...
कातर निगाहों से जहां वो ...
उस कमरे की ...माफ कीजिए...
ग्रीन रुम की दीवारों को ... छतों को ...
जाले लगे कोनों को ...
पपड़ाती सफेदी...
सस्ते फिनाइल से गंधाते फर्श को ...
साक्षी मान कर कुछ तय कर चुकी थी ...
जहां वो रिवाइंड मोड में थी ...
अचानक एक जाने पहचाने स्पर्श से ...
वो लौट आई...
वापस इस दुनिया में ...
स्पर्श रुखा था... बेजान... एकदम अजनबी सा...
लेकिन हाथ...
जरुर उस हाथ की रेखाओं को पहचानता था...
उसका दिल डूबने लगा...
लेकिन सिर को ज़ोर से झटक कर उसने...
एक लंबी सांस ली ...
विचारों को विराम देकर ...
अपने साथी को देखा... जो उसका हाथ थामे खड़ा था...
और फिर उसने सुनी पर्दे के पार से ...
वो आवाज़ें... जो कब से उसका इंतज़ार कर रही थी ...
फेड इन होते संगीत ...
और मद्धम-मद्धम प्रकाश की विविधताओं के साथ...
वो अब स्टेज पर थी ...
अब वो लहरा रही थी ...
चंद लम्हों पहले पहने पहियों वाले जूतों...
और उस हाथ के सहारे ...
जो अब भी एक दम बर्फ सरीखा था ...
और वो उससे लिपटा था एक मुर्दे के समान ...
उनके शरीर ... अब उनके नहीं थे...
तमाम हालात के बावजूद...
वो अब उस संगीत के सम्मोहन में थे...
वो उन तालियों के अधीन हो चले थे...
जो कुछ ना जानते हुए...
विस्मय से देख रही थी...
ध्वनि... प्रकाश ... संगीत और
मानवीय परिकल्पना के इस अद्भुत सम्मिश्रण को...
लेकिन लड़की का दिमाग अब भी ...
वहीं था ...
ग्रीन रुम के उसी
साथी के हाथों की कसक...
अब नहीं थी...
उसे सबकुछ एक मशीन सरीखा लग रहा था...
वो हाथ अब उसे कष्ट पहुंचा रहे थे ...
उसे याद आ रहा था ...
हर लिफ्ट पर जब वो उससे लिपट जाती थी ...
जब वो उसे दोनों हाथों से ...
अपने सिर से उपर उठा लिया करता था ...
स्टेज पर आखिर उनका साथ काफी पुराना था ...
लेकिन...
उसे डर लग रहा था...
कहीं वो जिंदगी की ही तरह...
यहां भी दगा ना दे दे ...
फिर भी...
नृत्य में लोच बरकरार थी ...
साथ ही...लोगों की उत्सुकता भी...
मन के भीतर चलता द्वंद्व...
औऱ उसकी अकुलाहट...
अब स्टेज पर भी दिखने लगी थी ...
क्योंकि स्टेज को पूरा कवर करने की बजाय...
अब वो बीच में ही
गोल-गोल घूम रहे थे...
स्पॉटलाइट की रोशनी में ...
लड़की के आंसू ...उसके मेकअप को ...
कभी का अपना बना चुके थे...
वो अब हसरतों के साथ...
अपने साथी के चेहरे को देख रही थी...
उसके दिमाग में क्या चल रहा है...
वो अब तक नहीं पढ़ पाई थी ...
उसे तो विश्वास भी नहीं हुआ...
जब उसके साथ ने उससे कहा ...
वहीं उसी ग्रीन रुम में ...
जिसे वो स्टेज तक खींच लाई थी ...
कि वो खो चुकी है अब...
उसका लगाव..
(और अपना शरीर ... मन ... और सारे अधूरे सपने )
वो नहीं है इंटेलेक्चुअली उतनी चैलेंजिंग...
जैसा उसने सोचा था ...
उसमें अब वो कशिश नहीं रही ...
आखिर रहती भी कैसे ...
आखिर कुछ भी उससे अछूता जो नहीं था ...
जाने उसका ही मन लड़की से अछूता कैसे रह गया...
गांव से आया एक लड़का ...
कैसे इतना प्रबुद्ध... इंटेलेक्चुअल ... बन गया
वो सब उसी रिवाइंड मोड में चलता चला गया ...
औऱ उसे पता नहीं चला ...
वो पीठ के बल स्टेज पर पड़ी थी ...
आंखों की पुतलियां एक तरफ घुमाईं..
तो उसे लोगों की तालियां दिखाई पड़ने लगी ...
वो संज्ञाशून्य सी ... कुछ नहीं सुन पा रही थी ...
दूसरी तरफ ... उसके जूतों के पहियें...
उसके पैरों का साथ छोड़ कर...
वहीं पास ही में पलटे हुए ... स्टेज को खरोंच रहे थे...
औऱ वो महसूस कर रही थी ...
दूर जाते हुए कदमों के कंपन को...
लोग मंत्रमुग्ध थे...
परफॉर्मेंस के इस पटाक्षेप पर ...
उनके लिए ये कुछ नया था ...
थोड़े से ड्रामे के साथ...
एक नया एंड...एक नए ट्रेंड की शुरुआत सा...
और लड़की की आंखें उस पर टिकी स्पॉटलाइट से जा मिली थी ...
उसकी आंखों की पुतलियां फैलती जा रही थी ...
और वो फिर से उसी ग्रीन रुम में जा पहुंची थी ...
प्रकाश औऱ छाया के उसी अद्भुत खेल के बीच...
जहां वो सालों से सिर्फ एक शरीर थी ...

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

बे-दिल दिल्ली ?

वो मर गई ...
पूरे चार दिन बाद ...
एक नवजात बच्ची को अकेला छोड़ कर...
शंकर मार्केट के एक फुटपाथ पर....
( हां वही शंकर मार्केट जो सीपी में है )
तो इसमें नया क्या है ?
हज़ारों मरते हैं ... फुटपाथ पर ....
कीड़े मकौड़ों की तरह ...
जीने के बाद ...
यूं ही बेचारगी की मौत ...
जिन पर मक्खियां भिनभिनाया करती हैं ...
इसका मरने का तरीका भी उतना ही घिनौना था ...
(लोग जाने क्यों ढंग से अब मर भी नहीं सकते )
जो कपड़ा इसने ओढ़ा था...
आदमी सूंघ ले तो बस ...
तस्वीर देख कर ही कईयों को उबकाई आ गई ...
हां ...
अखबार में इसकी फोटो छपी थी...
वो खुद उसे नहीं देख पाई ...
लेकिन मरते ही मशहूर हो गई ...
उसकी बच्ची ...
मां जिंदा रहती तो वो भी फुटपाथ पर ही रह जाती...
अब शायद कोई गोद ले ले ...
कई टीवी चैनलों पर खबर को जमकर ताना गया...
साथ ही...
जमकर कोसा गया ... बे-दिल दिल्ली को ...
(खबर जरा हट के थी भाई ... ह्यूमन एंगल ... भावनात्मक दोहन सरीखा कवरेज़ )
लेकिन दिल्ली वाले क्या करें...
क्योंकि ...
सड़क के दूसरी तरफ...
दिल्ली तैयार हो रही है...
सीपी के गलियारे चमकाए जा रहे है...
आईने सरीखी टाइलें लगाई जा रही हैं...
एकदम चकाचक ...
और जाने क्या क्या ...
इस तरफ की भिखारिन मरे या जिए ...
किसे परवाह है ...
वैसे भी,
कई दिन से फुटपाथ रोक कर पड़ी थी ...
वो जगह पानी से धो दी गई होगी ...
नहीं तो वापस लौटता मॉनसून...
दिल्ली वालों को निराश नहीं करेगा ...

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

बस यूं ही ...


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तू क्या लिखेगा कागज पर ..

उस बेबाकी से ... जो वक्त पर सिलवटें लिख गईं ...

वो क्या कहेंगे ...

तेरे बेजान लफ्ज ...

कांपते - हांफते...

जो बाजुओं पर यूहीं करवटें कह गई ...

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...एक अजीब सा सपना है ...

जो आजकल मैं देखता हूं...

हाथ की रेखाओं को अपनी...

बारिश के पानी में धुलते देखता हूं...

पर जाने क्यों अच्छा लगता है जब

वजूद को अपने..

बारिश की बूंदों में घुलते देखता हूं ...

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गर ख्वाबों में भी तुझे सताया...

तो तुझे क्या चाहा ...

तेरा दर्द ना अपना पाया ...

तो तुझे क्या पाया ...

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मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

तुम सिर्फ एक कविता नहीं हो

तुम सिर्फ एक कविता नहीं हो ...
तुम ...
मेरे जिस्म की उस गंध के समान हो...
जो लिपटी पड़ी हैं...
मेरी हथेली की रेखाओं से ...
एक समान दो जिस्मों की सुवास...
जो एक अकेली गंध पर हावी है...
जो एक अनकही...
अनजानी...
अनदेखी दुनिया में...
कहीं ना कहीं ...
मेरे वजूद का हिस्सा जरुर है ...

तुम सिर्फ एक कविता नहीं हो...
किसी विचारक के कहे मुताबिक ...
सिर्फ भावनाओं का... शब्दों का ...
उगलदान नहीं हों...
बल्कि तुम...
उन तत्सम भावों का समावेश हो...
जो मेरे शब्दों संग...
तद्भव हो जाते हैं...
क्योंकि थोड़ी बहुत मिलावट के बाद ही...
हम इंसान सच को झेल पाते हैं...
विशुद्ध... निर्मल...
औऱ निष्कलंक भावों का कोरापन...
सबको नहीं सुहाता हैं...

तुम सिर्फ एक कविता नहीं हो...
तुम एक सोच हो...
एक मानसिकता की परिचायक...
एक परिपक्व विचारधारा की द्योतक...
बरसों से सुलगती किसी ...
वैचारिक क्रांति की प्रणेता...
मेरे ही रचे किसी सम्मोहक... लेकिन क्षणभंगुर ...
आयाम के सोपान की तरह...
तुम्हारा अस्तित्व एक मुलम्मा है...
जो एक भ्रूण की तरह ...
मेरे... ' मैं 'को सहेजे है...

तुम सिर्फ एक कविता नहीं हो...
तुम तो एक आदत हो...
हर साल लौट कर आते वसंत की...
अपनों को समेटते...
सहेजते ... हेमन्त की याद सी...
सावन के सुर में ...
पगडंडियों से बह निकलती हो तुम...
पौष की रात के एकांत सरीखा चित्त...
हर मौसम हर पहर एक उन्माद सी ...

तुम सिर्फ एक कविता नहीं हो...
जग की उतरन सी...
तुम...
तन की सिहरन सी...
तुम ...
रिश्तों की सिलवट लिए...
बातों में ठिठुरन सी ...
चुपचाप...बहते...
रुधिर प्रवाह के स्पंदन सी...
मेरे भीतर 'खुद से' किसी अनबन सी तुम
नश्वरता को जीत चुकी किसी देह का तेज लिए...
मेरी आत्मा को अंश-अंश कर...
मुक्त करती ... किसी मंथन सी तुम...
तुम सिर्फ एक कविता नहीं हो...

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

वो खुद को गरीब महसूस करता है

वो खुद को गरीब महसूस करता है...
क्योंकि जब वो भीख मांगने को बढ़ा हाथ देखता है...
औऱ जेब से जब निकालता है ...
एक अदद ब्रांडेड पर्स...
तो उसमें 100-100 के 10-15 नोट ही पड़े होते हैं...
काश ये 1000 रुपए के नोट बन जाते...
पलक झपकते ही...
ये सोचते हुए वो...
भिखारी को एक की बजाय दो रुपए देकर आगे बढ़ जाता है...
(नाक-भौं सिकोड़ना लाजमी है)
वो खुद को गरीब महसूस करता है...
क्योंकि जब वो रोज़ ऑटो से सफर करता है...
तो दिन के ढेरों सपनों के साथ देखता है...
उस धक्का स्टार्ट ऑटो को...
फर्राटे से पीछे छोड़ती...
लम्बी-लम्बी गाड़ियों को...
जिनके एसी की कूलिंग पावर...
वो अचानक बाहर तक ...
ऑटो में भी महसूस करता है...
औऱ कुछ पल भूल जाता है...
चेहरे को डीप फ्राई करते...
लू के थपेड़ों को...
औऱ अपना मनपसंद गाना गुनगुनाते हुए...
ऑटो वाले को कहता है...
पता नहीं तुम लोग मीटर से क्यों नहीं चलते...
और थोड़ा तेज़ चलाओ...
मैं लेट हो रहा हूं...
(गाने का मुखड़ा खत्म होने पर... थोड़ी सी झल्लाहट के साथ)
वो खुद को गरीब महसूस करता है...
जब वो किसी 5-स्टार होटल के सामने से गुजरता है...
जहां वो रोज़ जाना चाहता है...
छू कर देखना चाहता है ...
उस ज़िंदगी को...
बेहद करीब से...
जीना चाहता है...
सुना है वहां सब इंतजाम होते हैं....
उस दिन वो घुस जाता है...
अपनी जेब से जरा से उपर रेस्त्रां में...
और पूरा महीना फिर वो दिन
... वो भूल नहीं पाता है...
(कोसता है... उस पल को..उस फैसले को...)
वो खुद को गरीब महसूस करता है...
जब वो एक मल्टी स्टोरी बिल्डिंग में ...
एक उंचे से फ्लोर पर बने अपने ऑफिस में होता है...
उस उंचाई से ...
दिन में कई बार नीचे झांकता है...
नीचे बसी झुग्गियों को हिकारत से देखता है...
लेकिन अपने से उपर के फ्लोर पर जब जाता है ध्यान...
तो वो...
मायूस सा हो जाता है...
भले ही लिफ्ट से कुछ सेकेंड लगते हैं...
लेकिन एक फ्लोर भर का फासला भी...
अक्सर एक पूरी उम्र ले लेता है...
(उसके बाल अभी से सफेद होने लगे हैं...)
वो खुद को गरीब महसूस करता है...
जब वो देखता है...
एक परले दर्जे के बेवकूफ को...
बॉस के सामने....
बेवकूफी की नई-नई मिसालें पेश करते हुए...
उसके आदर्श...
वो वहीं भूल जाता है...
जब वो देखता है...
उसका ही एक साथी...
एक कुत्ते की तरह जीभ निकाले....
खीसें निपोर रहा है...
औऱ दूसरा इंतजा़र में खड़ा है...
कब पहले वाला हटे...
तो वो भी चाटुकारिता का कोई नया अध्याय लिख सके...
और वो खुद पूरे मन से जुटा है...
अपना काम करने में...
उसकी ईगो को अच्छा लगता है...
वो एक सनकी की तरह सब इग्नोर कर देता है...
(वैसे ये चमचा बनना भी कोई आसान काम नहीं है)
वो खुद को गरीब महसूस करता है...
जब वो हाई-फाई अंग्रेजी बोलती लड़कियों को देखता है...
आईने के सामने ...
वो भी कई बार हाथ हिला-हिलाकर ...
वैसे ही बोलने की कोशिश करता है...
लेकिन आईना कमबख्त झूठ भी तो नहीं बोलता...
उसकी गरीबी और बढ़ जाती है...
जब वो उन लड़कियों के साथ...
अब कुछ लड़कों को भी देखने लगता है...
जो वैसे ही हाथ हिला-हिलाकर बात कर रहे हैं...
एक गरीब को गुस्सा भी बहुत आता है...
लेकिन वो गुस्से को पीना भी सीख जाता है...
(सब जवानी के चोंचले हैं... )
वो खुद को बहुत गरीब महसूस करता है...
जब वो देर रात काम से घर लौटता है...
अगले दिन का डे-प्लान...
उसके दिमाग में दौड़ रहा होता है...
औऱ वो देखता है...
एक हैप्पी डिनर के बाद...
शहर की सड़कों पर निकले...
लोगों को...
कई परिवार के साथ... हैं...
जिनके बच्चे गुब्बारे खरीदने की जिद कर रहे होते हैं...
एक पल को वो भी बच्चा बन...
गुब्बारे खरीदने को मचल जाता है...
फिर वो आईसकीम शेयर करते कुछ जोड़ों को देखता है...
उसे लगता है वो बचपन से सीधा बुढ़ापे में प्रमोट हो गया है...
लगता है जैसे ज़िंदगी जी नहीं है... बस किसी तरह बिता दी है...
लेकिन उनकी बातें वो रस ले-लेकर सुनता है...
कुछेक यादों को वो...
फिर अपने तरीके से मैन्युपुलेट कर...
खुश होने का ढोंग रचता है...
औऱ जैसे ही हंसने की कोशिश करता है...
पेट में आंतें कुलबुलाने लगती है...
और उसे याद आता है कि काम की आपाधापी में...
आज वो फिर से लंच कर ही नहीं पाया...
वो अपनी गरीबी भूल जाता है...
अब उसे भूख सताने लगती है...