शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

पांच रुपए की प्लेट...गरीब खाए भरपेट


तू क्यों खुद को गरीब बताता है

जब 5 रुपए में तेरा पेट भर जाता है

 " आप हाईप क्रिएट करते हैं...

मैं तो बीमार हूं

मेरा काम तो 5 रुपए से भी कम में चल जाता है ... "

2 रुपए में तेरा खाना हो जाता है

फिर क्यों गरीब गरीब चिल्लाता है

" ये दिल्ली है दिल्ली ...

यहां हर चीज़ का जुगाड़ हो जाता है "

पेट तो 1 रुपए में भी भर लो

ना भरे तो 100 रुपया भी कम पड़ जाता है

 " अपनी औकात से बाहर जाकर...

क्यों तू अपनी भूख बढ़ाता है "

सपनों का शहर है मुंबई

12 रुपए में मिलता है भरपेट भोजन

महंगे सपने और सस्ता खाना

" चौंको मत ... पेट की सोच "

तू अपना दिमाग क्यों चलाता है

33 रुपए तो बहुत होंगे तेरे गुजारे के लिए

अब इससे ज्यादा तू और क्या चाहता है

वो विरोधी दल का है

उसकी बातों में क्यों आता है

वो जलता है तेरी खुशहाली से

उसे तो सिर्फ जले पर नमक छिड़कना आता है...

आटे-दाल का भाव पता है मुझे

तू गरीब है

" सिर्फ अपना घर चलाता है

नेता की भी जिम्मेदारी समझ

नेता तो पूरा देश चलाता है... "

और गरीब

वो तो कुछ समझ ही नहीं पाता है

" गरीब "

चुनावों के वक्त सबको याद आता है

वोट मांगने के वक्त

हर कोई गढ़ता है नई परिभाषा

हर कोई उसे अपना बताता है

लेकिन

गरीब जब भूखा होता है

तो उसे खाना खिलाने कोई  नहीं जाता है

गरीब जब भूखा होता है

तो उसे खाना खिलाने कोई  नहीं जाता है ...

शनिवार, 20 जुलाई 2013

अरसे से जैसे कुछ पता ही नहीं ...

अरसे से जैसे कुछ पढ़ा ही नहीं
अरसे से जैसे कुछ लिखा ही नहीं...
वक्त गुजरता रहा यूहीं बेसाख्ता...
अरसे से जैसे ...
... हमने जिया ही नहीं...
अखबार रद्दी बनते रहे...
धूल फांकती रहीं किताबें...
दोस्त फेसबुक पर मशगूल रहे...
कि ट्विटर,
थोड़ा सब्र कर ...
तुझे अभी समझा नहीं...
फिल्मों सरीखी चल रही है सांसें...
इंटरवल पता नहीं...
...है नहीं या हुआ नहीं...
मोबाइल पर मिलते रहते हैं
हर आम और खास के अपडेट
लेकिन
मेरा प्रोसेसर तो मेरे लैपटॉप सरीखा है...
आउटडेटेड हो गया...
और हमने अपडेट किया नहीं...
जिंदगी से निकलते जा रहे हैं इमोशंस
ताकि गैजेट्स और एप्स काबिल साबित हों
( मुझे तो ये MNC की साजिश लगती है)
खैर
 " जिंदगी से  निकलते / निकाले  जा रहे हैं इमोशंस
ताकि गैजेट्स और एप्स काबिल साबित हों "
हम खर्च कर बैठें हैं सारे लम्हें...
कि हमारी जेबों में कुछ बचा ही नहीं...
खरीद लेता था कभी कभी
शौकिया कुछ पत्र-पत्रिकाएं
मजमून देखकर उसके स्टॉल से
एक अरसा हुआ
अपने अखबार वाले तक से मैं मिला नहीं ...