गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

शुक्रिया ... आकाश के रचयिता ...

समर और प्रभा ... उस वक्त सिर्फ दो किरदार नहीं थे ...
वो एक बाल-मन की सोच का सच बन चुके थे।
साहित्य क्या होता है ?
यथार्थपरक... यथार्थपूरक या फिर इससे परे ... एक अलग ही दुनिया।

बचपन इस जद्दोजहद से परे था...
वो एक अलग ही जिंदगी जी रहा था। स्कूल की किताबों और कॉमिक्स की दुनिया से परे उसे जैसे एक खज़ाना हाथ लग गया था। कक्षा...साल , तारीख... महीना ... कुछ याद नहीं , हां लेकिन जो भी पढ़ा था वो अभी तक स्मृति में अंकित है ...

बात स्कूल के दिनों की है जब सालाना गर्मियों की छुट्टियां अक्सर ननिहाल में ही बीतती थीं, अपने पैतृक गांव भी शायद उतना जाना नहीं हो पाता था। लेकिन उस वक्त जो जिया वो अब एक किस्से सरीखा ही लगता है। हालांकि गांव की जिंदगी आज भी अपनी ही गति से चलती है, फर्क सिर्फ इतना आया है कि अब आपकी जान-पहचान के ज़्यादातर लोग शहर चले गए हैं, लिहाज़ा या तो वो आपको गांव में मिलते नहीं या फिर जो हैं वो आपको बमुश्किल जानते हैं।

लेकिन तब आपके पास वक्त बहुत होता था, जिंदगी को जीने का वक्त। ऐसा वक्त जिसके बारे में अब आप सिर्फ सोच सकते हैं।

एक बार ऐसे ही फुर्सत के पलों में मैं पुरानी किताबें उलट-पुलट कर पढ़ने के लिए कुछ ढूंढ रहा था, कि सारा आकाश जैसे खुद ही मेरे सामने आ गया । साथ ही सूरज का सातवां घोड़ा भी तैयार था। हालांकि तब उस स्कूली बालक को अंदाज़ा नहीं था, लेकिन आज भी उस वक्त पढ़ा हुआ एक- एक शब्द एक अहसास की तरह उस जिज्ञासु पाठक के ज़हन में अंकित है।

Image Ctsy - Google

सारा आकाश ...
कितनी बार पढ़ी , याद नहीं...
 अपने कितने मित्रों को भेंट की
 ( ताकि वो अंजान ना रह जाएं) ये भी याद नहीं।
लेकिन ये सिलसिला यूं ही जारी रहेगा।


एक सामाजिक बंधन की मजबूरी बहुत ही सहजतापूर्वक,  शब्दों के माध्यम से एक रेखाचित्र सरीखी याद बनकर रह गई। या फिर यूं कहें कि उस दौर की एडजस्टमेंट का वो खाका जिस तरह से खींचा गया शायद उसकी प्रासंगिकता आज भी कहीं ना कहीं बरकरार है, बस किरदार बदल जाते हैं, हालात बदल जाते हैं ...

एक अरसे तक पति-पत्नी के बीच की संवादहीनता और फिर बरसों बाद उस रिश्ते का अहसास और उस रिश्ते को नए सिरे से जीने की कोशिश और फिर एक नए परिप्रेक्ष्य में उस रिश्ते का अपने वजूद के लिए संघर्ष ... और परिणति ...

' हंस ' पढ़ने का मौका बहुत बाद में मिला हालांकि अज्ञानतावश उस वक्त  ' हंस ' और ' सारा आकाश ' को एक साथ रखकर नहीं देख पाया । आपकी कुछ कहानियां जरुर पढ़ी , फिर साबका हुआ एक कहानी से  ...  'एक कहानी यह भी ' ... उसके बाद 'आपका बंटी' और फिर ' एक इंच मुस्कान ' ।

खासकर ' एक इंच मुस्कान ' जैसा प्रयोग, मैं इस तरह की साहित्यिक प्रयोगधर्मिता के बारे में सुनकर ही उसे पढ़ने को लेकर बेहद उत्साहित था, और पढ़ने के बाद ...संतुष्ट। इसके साथ ही इधर एक और डेवलपमेंट हुआ, मैं अब खुद को बंटा हुआ महसूस करता था, उसके बाद कोशिश की दोनों को ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ने की ताकि दोनों को समझ सकूं, सुपात्र नहीं हूं लेकिन फिर भी दोनों का पक्ष ... दोनों का लेखन ... अपनी जानकारी के हिसाब, संदर्भित व्याख्या के साथ ग्रहण कर सकूं। सत्य क्या है, साहित्य क्या है ...  मन्नू भंडारी का लिखा पढ़ने के बाद राजेन्द्र यादव औऱ उनका लेखन दोनों मुझे वक्त वक्त पर अपनी तरफ खींचते रहे।

हम लिखते हैं क्योंकि हम महसूस करते हैं लेकिन क्या हम वो सब कुछ लिखते हैं जो हम महसूस करते हैं। यहां  महसूस करने को जिंदगी जीने के भाव के तौर पर देखना/समझना ज्यादा सार्थक रहेगा। और यही सार्थकता मेरे जीवन में एक पाठक के तौर पर मुझे ' सारा आकाश ' में महसूस होती है।

शब्दों में छिपी भावनाएं ... हालात बयां करते वाक्य ...
तमाम जिंदगियों को समेटे साहित्य ...
और साहित्य में बसा सच ...

अब तक जो भी कुछ पढ़ सका और आगे जो भी पढ़ पाया ... वो स्मृति है ... धरोहर है ... प्रेरणा है...

कुछ सार्थक लिख पाया तो वो समर्पित होगा ....

शुक्रिया ... शुक्रिया ... शुक्रिया ... आकाश के रचयिता !!! 

शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

My Delhi Manifesto- क्या चाहती है दिल्ली !!!














" दिल्ली – सपनों का शहर ... खुशियों का शहर ... उम्मीदों का शहर ... आशाओं का शहर। कुछ यही सपने लिए जाने कितने लोग दिल्ली आते हैं ...और जाने कितने यहां रहते हैं। "

बात कॉलेज के दिनों की है ... जब ये चंद लाइनें अपनी एक डॉक्यूमेंट्री के लिए लिखी थी।

सपने अब भी वैसे ही हैं, खुशियां अभी भी उतनी ही प्यारी हैं, उम्मीदें बढ़ती जा रही हैं... आशाएं अब भी हैं... और इन सब के बीच अपनी दिल्ली भी कितनी बदल चुकी है। दिल्ली की जरुरतें कितनी बदल चुकी हैं... दिल्ली की आबादी कितनी बढ़ चुकी है। लेकिन क्या बढ़ती आबादी, फैलती दिल्ली और बदलती दिल्ली ... जरुरतों और विकास के बीच किसी भी तरह का सामंजस्य हम स्थापित कर पाए हैं, बड़ा सवाल ये है।
सवाल किसी सरकार या पार्टी विशेष का नहीं है।
सवाल दिल्ली का है...दिल्ली की आबादी का है...दिल्ली की जरुरतों का है...दिल्ली के विकास का है। सवाल दिल्ली के लोगों का है।
अपनी उम्र के हिसाब से दिल्ली के बदलाव का करीब-करीब तीन दशकों तक का दौर अभी तक मैने भी जिया है। मुद्दे कमोबेश वही रहे हैं ...बस वक्त वक्त पर लोगों की प्राथमिकता बदलती रहती है।

अपराध मुक्त और भयमुक्त दिल्ली
दिल्ली देश की राजधानी है। अगर इसी राजधानी के लोग खुद को सुरक्षित महसूस ना करें तो हालात वाकई चिंताजनक हैं। उस पर महिलाओं के खिलाफ लगातार बढ़ते अपराध...छीनाझपटी...छेड़छाड़ औऱ बलात्कार ... दिल्ली पुलिस केन्द्र के अधीन हो या राज्य के, दिल्लीवालों की मांग अपराध मुक्त और भयमुक्त दिल्ली की है जो उनका अधिकार है।
महंगाई – जी हां ... दिल्ली महंगाई से मुक्ति चाहती है।
देश के किसी भी हिस्से में कहीं भी कुछ भी होता है , उसका असर सीधा राजधानी दिल्ली के बाज़ारों ... घरों ... रसोईघरों पर पड़ता है। प्याज़ रसोईघरों से निकल कर चुनावी मुद्दा बन जाती है। और बात सिर्फ प्याज़ की नहीं है महंगाई की मार से आम आदमी सालों से बेहाल है । आखिर राजधानी में रहने की कीमत लोग चुकाएं ये कहां तक जायज़ है। जीना महंगा और लगातार महंगा होता जा रहा है।
बिजली-पानी का अधिकार 
 क्या निजीकरण हर समस्या का समाधान है। सवाल भी आपके सामने है और जवाब भी।  दिल्ली जैसे शहर को 24 घंटे बिजली- पानी की दरकार है। कहीं बढ़े बिल तो कहीं बिजली नहीं ... तो कहीं पानी की बूंद तक नहीं। मानो शहर का हर हिस्सा एक अलग जिंदगी जी रहा है।
विकास में सामंजस्य  
 राजधानी दिल्ली विकास चाहती है लेकिन विकास में सामंजस्य होना बहुत जरुरी है। आप एक फ्लाईओवर बनाते हैं लेकिन जहां वो फ्लाईओवर खत्म होता है वहां सड़क इतनी संकरी हो जाती है कि आपका फ्लाईओवर जाम का समाधान नहीं जाम का सबब बनता है।
शहर की बढ़ती आबादी के हिसाब से औऱ शहर के बढ़ते विस्तार के साथ साथ सुविधाओं का सामंजस्य बहुत जरुरी हो जाता है। 
विकास की समग्रता 
 विकास आबादी के हर हिस्से तक पहुंचे और शहर के हर कोने तक , ये भी सुनिश्चित करना होगा। एक बारिश में ही सरकारी एजेंसियों के दावों की पोल खुल जाती है। सड़कें तालाब में तब्दील हो जाती हैं, अंडरपास बसों को अपने आगोश में ले लेते हैं । जगह-जगह सड़कों पर गड्ढे ...

 हमें वर्ल्ड क्लास दिल्ली चाहिए थर्ड क्लास नहीं।

प्रदूषण से निवारण 
 प्रदूषण से छुटकारा पाने के तमाम उपाय जैसे नाकाफी साबित होते जा रहे हैं। सड़कों पर वाहनों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है, रात के वक्त राजधानी से गुजरने वाले भारी वाहन हवा को इतना ज़हरीला बना देते हैं कि दिन भर आपका दम घुटा सा रहता है।
बेहतर सार्वजनिक परिवहन सेवा 
शहर की आबादी के हिसाब से लोगों को अपने गंतव्य तक पहुंचाने के लिए शहर को एक इंटीग्रेडेट ट्रांसपोर्ट सिस्टम की दरकार है। जो शहर के हर हिस्से तक पहुंचना आसान बनाए ... सुरक्षित बनाए और सस्ता भी। जरुरत मेट्रो की भी है तो बसों की भी। उपयोगी ग्रामीण सेवा भी है, जरुरत सिर्फ समुचित संचालन की है।
बेहतर ट्रैफिक व्यवस्था और जाम से निजात 
दिल्ली को एक बेहतर ट्रैफिक सिस्टम की जरुरत है जो शहर में दौड़ने वाले ट्रैफिक पर काबू रखे साथ ही जगह-जगह लगने वाले जाम पर भी जो लोगों के वक्त के साथ साथ उनकी जेब पर भी भारी पड़ रहा है। अक्सर वीआईपी मूवमेंट भी लोगों के लिए परेशानी का सबब बन जाता है। ध्यान इस बात का रखा जाना चाहिए कि लोग ट्रैफिक नियमों का पालन करें बजाय इसके कि ज़ोर उनका चालान काटने पर दिया जाए। 
शहर की हरियाली बरकरार रखनी होगी
हमें ध्यान रखना होगा कि विकास पर्यावरण की कीमत पर ना हो । शहर का कंक्रीट शहर की हरियाली को ना निगल जाए। दिल्ली का फेफड़ा माना जाने वाला रिज इलाका धीरे धीरे उपेक्षा का शिकार हो रहा है, अतिक्रमण दिल्ली की हरियाली को निगल रहा है। जो पेड़ सालों से नहीं गिरे सरकारी विभागों की लापरवाही की भेंट ना चढ़ें। दिल्ली अपने बाशिंदों को स्वस्थ रखे, इसके लिए जरुरी है दिल्ली खुद तंदरुस्त रहे, हरी- भरी रहे। साथ ही लगातार गिर रहे जलस्तर पर भी नज़र रखी जाए और इसके लिए जो नियम कानून बनाए गए हैं उनका सख्ती से पालन किया जाए।
साफ-सुथरा शहर और गंदगी से छुटकारा
शहर को साफ सुथरा रखने की जिम्मेदारी जिन एजेंसियों की है वो अपना काम ठीक से करें, दिल्ली ये गारंटी मांगती है। शहर गंदा ना दिखे, दिल्ली इसकी गारंटी भी मांगती है। दिल्ली का एक हिस्सा वो भी है जहां आप कूड़े के पहाड़ देखते है, जहां आसपास के निवासी और वहां से गुजरने वाले एक अजीब सी बू के आदी हो चले हैं। डंपिंग ग्राउंड्स और लैंड-फिल साइट्स शहर का दाग ना बन जाएं, हमें शहर चाहिए... कूड़ाघर नहीं।
अवैध कॉलोनियों का नियमन
राजधानी में जिस वक्त जगह-जगह अवैध कॉलोनियां कुकुरमुत्ते की तरह उग आईं तब शायद अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि आज वो दिल्ली की इतनी बड़ी आबादी का पता बन जाएंगी। पीने के लिए पानी नहीं, कई जगह बिजली नहीं, ना सड़कें ना सीवर, विकास की वास्तव में जरुरत इन कॉलोनियों को है जहां विकास चाहिए , परस्पर समन्वय के साथ विकास। सिर्फ दावों और वादों से काम नहीं चलेगा, काम कर के दिखाना होगा क्योंकि आपके चाहते और ना चाहते हुए भी अब ये हमारे शहर का ही हिस्सा है।
यमुना को बचाना होगा 
दिल्लीवाले अपनी धरोहर यमुना को लेकर साल में कुछ ही दिन जागते हैं लेकिन हज़ारों करोड़ों रुपए फूंकने के बाद भी यमुना की हालत बद से बदतर ही हुई है। यमुना में गिरने वाले नाले तमाम सरकारी दावों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। इससे पहले कि ये शहर अपनी नदी को हमेशा के लिए खो दे ... जरुरी कदम उठाने होंगे, सरकार को भी और इस शहर को भी।
सीवरेज सिस्टम में सुधार
शहर में कई जगह अभी भी सीवरेज सिस्टम पहुंचा नहीं है कई जगह अंतिम सांसे ले रहा है... और इसका नतीज़ा लोग हर साल भुगतते हैं। बदलाव और सुधार ...जरुरत यहां भी है।
भ्रष्टाचार मुक्त दिल्ली
सरकार के लाख दावों के बावजूद राजधानी अब तक भ्रष्टाचार मुक्त नहीं हो पाई है। भ्रष्टाचार हमेशा से ही जनसाधारण का पसंदीदा दर्द और दर्दनिवारक मुद्दा रहा है (भ्रष्टाचार को कोस-कोसकर लोग शांत हो जाते हैं। भ्रष्टाचार से ना सिर्फ आम आदमी परेशान है बल्कि सरकारी खजाने को भी चपत लग रही है। दिल्ली सरकार के हर विभाग को भ्रष्टाचार मुक्त देखना हर दिल्लीवासी का सपना है।
औऱ अब सबसे जरुरी बात जोकि दिल्ली और दिल्ली के लोगों के लिए सबसे जरुरी है
चुनावी वादों की सच्चाई
जी हां ... चुनाव के वक्त नेता वादे तो कर जाते हैं लेकिन उन वादों की हकीकत क्या है ये अगले चुनाव आने पर ही पता चलता है जब जनता के सामने उन वादों पर हो रहे दावों की कलई खुलती है।

दिल्ली शिक्षा का अधिकार चाहती है
दिल्ली सुरक्षा का अधिकार चाहती है
दिल्ली सूचना का अधिकार चाहती है
दिल्ली ज्यादा कुछ नहीं चाहती है ... बस 
विकास का अधिकार चाहती है ... 
दिल्ली...
जीने का अधिकार चाहती है 
यही सब कुछ है जो अपनी गति से धीरे-धीरे हो गया होता तो शायद कुछ ऐसे नए मुद्दे आ गए होते जो वक्त के हिसाब से मुनासिब रहते... लेकिन मुद्दों का ये बैकलॉग सालों से है ... औऱ दिलवालों की ये दिल्ली इस बैकलॉग को कब तक बर्दाश्त कर पाती है , ये देखना होगा। ये दिल्ली अपने अधिकारों के लिए लड़ना भी बखूबी जानती है , इंतज़ार कीजिए ...नतीजा आप खुद देखेंगे ... फर्क आप खुद महसूस करेंगे। 

दिल्ली की हालत फिलहाल कैसी है ये आपके सामने है ... हमें ऐसी दिल्ली चाहिए जहां विकास है तो विरासत भी । गूगल से साभार ली गई ये तस्वीर शायद यही कुछ बयां करती है। 
CTSY-GOOGLE

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

गली गली गुलज़ार ...इस शहर का हाल यही है

सुना था ...
कुछ लफ्ज़ छूट गए थे वहां ...
जहां आपके लबों पर पहली बार हमारा नाम आया था...
वो जगह ...
रास्ते का वो किनारा  ...
खोद डाला है ...
सुना है सीवर लाइन की मरम्मत होनी है ....
अब वो लफ्ज़ किसी दरिया की नज़र होंगे ...
मलबे का पहाड़
राह देख रहा है रोज़ ...
कब उसे दफ्न किया जाएगा ...
अब उसे भी बारिशों का इंतज़ार है ...
रोज़ रोज़ राहगीरों की ठोकरें ...
औऱ गालियों का स्वाद ...
उसकी तबियत से मेल नहीं खाता ...
मलबा है तो क्या हुआ...
दिल तो उसका भी धड़कता है ...
बारिशों में बह निकलेगा कहीं...
या फिर बन जाएगा रास्ते की कीचड़...
और लिपटा करेगा लोगों के पैरों से ...
गोया ...कोई तो माफी दिला देगा ...
ज़िल्लत से ... जहन्नुम से ...
वहीं कुछ दूर ... सुना था ...
कुछ महीनों पहले ही सड़क बिछाई गई थी ...
उस पर भी पैबंद लगने हैं ...
कई जगहों से उधड़ गया है ...
वो जो भी कुछ पहना था उसने ...
इन बारिशों से पहले ...
डामर ... हफ्तों पहले आ चुका है ...
ड्रमों से रिस रहा है ...
शायद उससे भी सड़क की बदहाली देखी नहीं जाती ...
किनारे एक उफान सा पड़ा है ...
तो कहीं एक मखमली चादर की तरह जा लिपटा है ...
सड़क से ... आखिर कब तक इंतज़ार होगा ...
जगह-जगह बोर्ड लगे हैं ...

 " आदमी काम पर है ... असुविधा के लिए खेद है "
याद है मुझे ...
ऐसे हर बोर्ड की तस्वीर खींचने के लिए ...
बच्चे की तरह मचल जाती थी तुम ...
ऐसी जाने कितनी अनगिनत तस्वीरें ...
सालों से सहेज कर रखी थी तुमने ...
उस एल्बम का वज़न अब तुमसे संभलेगा नहीं ...




वहीं सड़क किनारे ...
खुले हैं टेलीफोन के बक्से ...
अरसे से सुधारे जाने की हसरत लिए ...
और तेरे बालों की लटों की तरह ...
फैले हैं बिजली के तार ...
और उनको फुर्सत ही नहीं ....
इन लटों को सुलझा दें...
इन तारों को हटा दें ...
किस्मत की लकीरों की तरह ....
आड़ी तिरछी हो चली हैं ....
सड़कों पर खींची गई रास्ता दिखाती वो रेखाएं ...
तुम्हारी ज़िंदगी की ही तरह ...
समतल नहीं रहा उसका धरातल भी ...
फुटपाथ-डिवाइडर पर रखे गमले ...
शायद किसी के घर की अमानत बन गए हैं ...
कुछ टुकड़ों में जी रहे हैं ....
सुना है कुछ पौधे अभी भी जिंदा हैं ...
उन्हें पानी देते आना ग़र मुलाक़ात हो तो ...
वो बेंच ...
CTSY - Self

वहीं सामने वाले पार्क में...
जहां तुम बैठा करती थी ...
अब आओगी ... तो दो फूल लेते आना ...
उस बेंच की अब यादें बची हैं ...
शरीर रात के अंधेरे में किसी ने बेच खाया ...




वहीं पार्क के पास
कूड़ा फेंकने  जाना ... तुम्हें अच्छा नहीं लगता था ना ...
अब कूड़े के लिए सुबह रोज़ गाड़ी आती है ...
लेकिन जब वो आए ...
तो सारी खिड़कियां - दरवाज़े बंद कर लेना ...
गाड़ी चली जाती है ... लेकिन
कूड़ा जैसे हवा में घुला हुआ वहीं छूट जाता है ...
सुना है अंधेरे से अब भी डर लगता है तुम्हें ...
उम्र बिल्कुल भी नहीं बदल पाई तुम्हें ...
अंधेरे का डर निकाल दो ...
हां अलबत्ता बिजली के बिल से शायद तुम्हें डर लगे ...
तुम्हें नहाना बहुत पसंद था ना ...
अब आकर आदत बदल लेना ...
पीने का पानी भी ... हिचकियों की तरह आता है ...
और हां ...
जब आना हो तो ... फोन से इत्तला करना ...
वो खत जो तुमने जाने के बाद लिखा था ...
महीने बाद गैराज में पड़ा मिला था ...
कुछ खत और कागज़ात...
अक्सर वहां मिल जाया करते हैं ...
एक पूरा दिन खत समझने में लगा था ...
और तुमको अभी तक नहीं समझ पाए ...
औऱ शहर ...
शहर अब भी नहीं बदला है ...
चुनावों का मौसम जरुर है ...
शायद कुछ दिनों के लिए चमक जाए ...
वैसे शहर भर का हाल यही है ...
हर शहर का हाल यही है ...
तुम आओ तो बदल जाए ...
तुम आओ ... तो शायद संभल जाए ...
बस वो लकीरें नहीं बदलेंगी ...
जो तुमने हर दरवाज़े के पीछे बनाई थी ...
एक पूरा शहर बसा दिया था तुमने
चंद रोज़ में ...
वहां अब जाले लगे हैं ...
इस शहर की ही तरह
उस घर का भी हाल यही है ...
शायद इस शहर के  ... हर घर का हाल यही है ...
तुम आओ तो बदल जाए ...
तुम आओ ... तो शायद संभल जाए ...