रविवार, 27 जुलाई 2014

झूठा बचपन ... रूठा बचपन


एक बचपन है झूठा सा ...
सपनों से रूठा सा ...
दिन बहुत लंबा है, पेट है खाली...
ये बचपन है...
दिन भर के बोझ से टूटा सा...
सतरंगी हैं गुब्बारे,
और डोर से ज़ख्मी हथेलियां,
नींद में ही सही मचलती तो होगी...
कलम पकड़ने के लिए...
दोपहर के सूरज तले...
कलम बेचती नन्ही सी उंगलियां...
क्यूं बचपन की खुशियों से,
ये बचपन है छूटा सा ...
सपनों से रूठा सा ...
एक बचपन है झूठा सा ...
रेड-लाइट पर भागता...
कातर निगाहों से ताकता...
भीड़ में चेहरे नहीं रोटी ढूंढता है ...
रोज़ सड़कों पर ...
ये बचपन भूखा सा...
अपनों से रूखा सा...
मढ़ी हुई है सूखी चमड़ी ...
मुट्ठी भर हाड़-मांस पर ...
ये बचपन है,
पसलियों तक सूखा सा ...
जिंदा शरीर...मुर्दा ख्वाब ...
बस उनके बोझ को ढोता सा ...
बुझे हुए अरमानों का बचपन...
ये बचपन,
जैसे एक धोखा सा ...
एक बचपन है झूठा सा ...
सपनों से रूठा सा ...
लम्हों को सीता हुआ ...
खाली सा ...रीता सा...
जूठन को धोता वो,
खुरचन पर जीता सा...
सपनों से रूठा सा ...
एक बचपन है झूठा सा ...