मंगलवार, 18 अगस्त 2015

हम नज़्म-नज़्म 'गुलज़ार' हुए ...

( जन्मदिन मुबारक गुलज़ार साहब
कुछ लिखा है, कुबूल हो ) ...

कुछ ख्वाब बुने
कुछ धूप मली
कुछ किस्सों से दो-चार हुए...
कुछ बातें पत्तों-बूटों से...
बादल-परबत किरदार हुए...
लिपटाए ओस की बूंदों को...
दिन भर बदरा के यार हुए...
जेबों में बताशे बारिशों के...
बादल-बादल हम सवार हुए...
तितलियों से सीखा जुनूं जीना...
शाम रंगों के कारोबार हुए
कुछ इश्क इबादत होठों पर...
हम नज़्म-नज़्म तैयार हुए
लम्हा-लम्हा हुई वक्त से यारी...
यूं लफ्ज़ों के 'गुलज़ार' हुए 
हम नज़्म-नज़्म 'गुलज़ार' हुए ...


मंगलवार, 28 जुलाई 2015

अलविदा ...डॉक्टर कलाम

मैं एक गहरा कुआं हूं इस ज़मीन पर...
बेशुमार लड़के-लड़कियों के लिए कि उनकी प्यास बुझाता रहूं।
उसकी बेपनाह रहमत उसी तरह ज़र्रे-ज़र्रे पर बरसती है...
जैसे कुआं सबकी प्यास बुझाता है।
इतनी सी कहानी है मेरी...
..............
.................
....................
मैं दूसरों के लिए मिसाल नहीं बनना चाहता, 
लेकिन शायद कुछ पढ़ने वालों को प्रेरणा मिले कि अंतिम सुख रूह और आत्मा की तस्कीन है...
खुदा की रहमत उनकी विरासत है।
......................................
शब्द गुलज़ार साहब के हैं ...
जो बयां कर रहे हैं एक रूह की खूबसूरती को...
और ये खूबसूरत रूह ... डॉक्टर एपीेजे अब्दुल कलाम... 
औऱ उनकी कहानी...
कहानी उस लड़के की जो अखबारें बेचकर अपने भाई की मदद करता था... 
उसके बाद जिसकी ज़िंदगी सबके लिए एक मिसाल बन गई।
फिलहाल... रात के बारह बज चुके हैं ... एक नया दिन एक नया सूरज आपकी राह देख रहा है...
और सुबह की पहली किरण के साथ वो हमें वहां से देख रहे होंगे... 
वो ज़मीन...जहां सूरज सबसे पहले अपनी आंखें खोलता है, उगते सूरज की ज़मीन पर जहां पिछले दिन का ढलता हुआ सूरज ...  उन्हें अपने साथ उस वक्त ले गया जब वो अपना सबसे पसंदीदा काम कर रहे थे... जब वो छात्रों के बीच ज्ञान औऱ अनुभव बांट रहे थे... उनसे अपने सपने साझा कर रहे थे... उनके हौंसलों को एक नई उड़ान ...एक नई पहचान दे रहे थे।
देश के 11वें राष्ट्रपति भारत रत्न डॉक्टर अब्दुल कलाम ने छात्रों से संवाद के हर मौके का बेहतर से बेहतर इस्तेमाल किया। डॉक्टर कलाम शिक्षा में रचनात्मकता के हमेशा पक्षधर रहे। एक अवसर पर छात्रों से बातचीत के दौरान किताबी ज्ञान के परे शिक्षा को रचनात्मक रूप देने पर ज़ोर दिया क्योंकि रचनात्मकता सोच की तरफ जाती है। सोच से ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान आपको महान बना देता है। 

ऐसे महान इंसान डॉक्टर कलाम के व्यक्तित्व और उनकी उपलब्धियों के सामने समूचा देश उनका ऋणी है। 

डॉक्टर कलाम सपनों पर भरोसा करते थे शायद तभी उन्होंने इतनी बड़ी उपलब्धियां हासिल की। उन्होंने ना सिर्फ बड़े सपने देखे बल्कि अपनी कड़ी मेहनत के बल पर उन्हें पूरा भी किया। 
एक बार उन्होंने कहा था ...

मेरे पंख हैं और मैं उड़ जाउंगा, आप सब मेरे साथ उड़ान भरने के लिए तैयार हैं???

वास्तव में ... सपनों के पंख लगाकर वो सफलता की उड़ान भरते रहे और सभी को प्रेरित करते रहे खासकर बच्चों और युवाओं को... खुद में भरोसा रखने के लिए, सपने देखने के लिए... और उन्हें पूरा करने के लिए। 
अलविदा डॉक्टर कलाम ...

गुरुवार, 23 जुलाई 2015

भूख की विचारधारा


रोटी की भूख
सबको बराबर सताती है
लेफ्ट या राईट होने से
आप रोटियां कम नहीं खाते हैं...
उसे गरीबी कहते हैं,
विचारधारा नहीं ...

मंगलवार, 21 जुलाई 2015

एक गिलहरी से मुलाकात


इस रविवार एक गिलहरी से मुलाकात हुई... उसका वीकली ऑफ था... मेरा नहीं। 
सुहाना मौसम, मॉनसून... सुबह से छाए बादल... बूंदाबांदी ...बारिश (चाय-पकौड़े) ... जलभराव... राजनीति की दशा और दिशा ...
हर विषय पर उसकी गजब की पकड़ है। बातचीत की detailing फिर कभी, फिलहाल उसकी तस्वीर... कभी राह चलते किसी पेड़-टहनी पर मिल जाए तो बेझिझक तस्वीर दिखाकर बात कर लें। याद रहे ये कोई आम गिलहरी नहीं है ...

शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

ये भी दिल्ली है ...

                 

दिल्ली की बारिश और जलभराव...

जनता... बकौल अखबार और समाचार, राजधानी की सड़कों पर पानी जमा होने से परेशान है लेकिन इसी शहर का एक हिस्सा ऐसा भी है जहां पक्की सड़कें बेशक नहीं है लेकिन जलभराव की समस्या शायद साल भर यूंही बनी रहती है, बारिश के होने या ना होने से शायद यहां के हालात पर बहुत ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता है।

पहली तस्वीर को देखिए... बिजली की तारों में उलझा-छिपा एक बोर्ड, अपनी फीकी पड़ती मटमाती लिखावट के साथ आपके पधारने का धन्यवाद का धन्यवाद कर रहा है।
धन्यवाद...जी हां... ये बोर्ड कुछ यही कह रहा है, लेकिन बारिश के मौसम में इस धन्यवाद के अगले ही कदम पर आपको क्या मिल जाए, आप सोच भी नहीं सकते। और यकीन मानिए आप ऐसा करना भी नहीं चाहेंगे।

ज़रा ध्यान से देखिए... तस्वीर में आप एक आदमी को हाथ में कुदाल लिए खड़ा देख सकते हैं।
ये भाई साहब पानी की निकासी का रास्ता खोज रहे थे। किसी महकमे के इंतज़ार में तो यहां के लोग सड़ांध भरे इस पानी में यूहीं सारा मौसम बैठे रहेंगे लेकिन बारिश की हर फुहार आपके लिए राहत नहीं परेशानी का सबब बनती जाएगी।

अगली तस्वीर में पानी से लबालब भरी गली में घुसने से शायद एक मिनी ट्रक को भी सोचना पड़ रहा है, गली में ठहरा हुआ पानी बारिश के पानी की तरह मिट्टी घुला हुआ गंदला सा नहीं, बल्कि नालियों के पानी और गाद से मिलकर काले रंग का बदबूदार घोल की तरह हो जाता है।

तीसरी तस्वीर में एक बाइक सवार पूरे अनुभव के साथ पानी से भरे रास्ते में धड़ल्ले से निकल गया लेकिन पैदल जाने वाले लोग... वो क्या करते होंगे। पैदल जाने वाले लोग दीवार का सहारा लेकर इन रास्तों को पार करते हैं। यहां से गुजरने वाले लोग किसी तरह व्यवस्था और बारिश को कोसते हुए निकल जाते हैं लेकिन यहां के बाशिंदे। यहां रोज़ाना सालों से रहने वाले लोग... क्या वो इसी ज़िंदगी के हक़दार हैं।

ऐसा कमोबेश इन लोगों के साथ हर साल हर बारिश होता होगा लेकिन इस समस्या का समाधान कब निकलेगा ये कोई नहीं जानता।  मौसम की पहली बारिश ही सिविक एजेंसियों की पोल खोल देती है लेकिन यहां ये हालात पहली से आखिरी बारिश तक बने रहते हैं... और शायद बिना बारिश के भी। हम लोग राजधानी की सड़कों पर एक-दो घंटे का जलभराव नहीं झेल पाते हैं और ये सड़ांध इन लोगों के जीवन का जैसे हिस्सा बन जाती है...एक-दो नहीं बल्कि पूरे 24 घंटे... ऐसा एक-दो दिन नहीं बल्कि सालों से चला आ रहा है और शिकायतें हर साल यूंही बह जाती है इसी तरह... लोग जैसे आदी हो चले हैं . . .

पार्टी बदल जाती है, नेता बदल जाते हैं, सरकारें बदल जाती हैं लेकिन कुछ है जो साल दर साल यूंही बदस्तूर जारी रहता है और वो है दिल्ली की अनधिकृत कॉलोनियों में लोगों का नारकीय हालात में जीवन। यहां रहने वाले लोगों को इन कॉलोनियों को नियमित करने का झुनझुना पकड़ा दिया जाता है, लेकिन ज़मीनी तौर पर ऐसा होना अभी बहुत दूर की कौड़ी लगती है। साल 2008 में तत्कालीन शीला सरकार ने 1639 अनधिकृत कॉलोनियों में से 895 कॉलोनियों को नियमित करने का फैसला किया था, लेकिन अभी तक एक भी कॉलोनी नियमित नहीं की जा सकी है। एक तरफ इन कॉलोनियों को नियमित करने वादा है तो दूसरी तरफ इस प्रक्रिया में शामिल तमाम व्यावहारिक दिक्कतें। लेकिन ये तमाम अड़चनें एक मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के सामने कोई वजूद नहीं रखती।

दिल्ली सरकार ने हाल ही में दिल्ली शहरी विकास एजेंसी (DUDA) बनाने की घोषणा की थी, जो दिल्ली में अलग-अलग सिविक एजेंसियों के बीच तालमेल बढ़ाने और विकास के कार्यों में एकरूपता लाने के साथ-साथ इन पर नज़र रखने का भी काम करेगी। दिल्ली कैबिनेट की बैठक में इस एजेंसी के गठन को औपचारिक मंजूरी दे दी गई है।

उम्मीद है ... अनधिकृत कॉलोनियों में रहने वाले हज़ारों-लाखों लोगों की ज़िंदगी अगली बारिश तक ऐसी ना रहे।
सभी जगह तो संभव नहीं है लेकिन अगर कुछ इलाकों में भी लोगों को रोज़ाना के इस नारकीय जीवन से छुटकारा मिल सके तो शुरुआत अच्छी ही मानी जाएगी। वर्ना लोग तो आदी हो चुके हैं, मजबूरी की ऐसी ज़िंदगी के भी औऱ हर बारिश में बह जाने वाले वाले चुनावी वादों के भी। 

बुधवार, 8 जुलाई 2015

एक दिन की ज़िंदगी ...



सिर्फ एक दिन की ज़िंदगी...

एक दिन की ज़िंदगी में ही उसने ज़िंदगी की हकीकत समझ ली।

आंखें खोलने से पहले ही उसे क्या-क्या नहीं देखना पड़ा।

उसे ज़िंदा रखने की कोशिश में मां-बाप को पल-पल मरते देखा।

उसे ज़िंदा रखने की कीमत लगी, जो उसके मां-बाप नहीं दे पाए।

मालूम हुआ एक अस्पताल ने नवजात की ज़िंदगी की एक दिन की कीमत लगाई 10,000 रुपए। अस्पताल के लिए शायद कोई बहुत बड़ी रकम नहीं थी, लेकिन उस मासूम की ज़िंदगी इस रकम के सामने बहुत मामूली थी। मां ने महीनों उसे कोख में रखा, पिता ने भी उतना ही इंतज़ार किया...
इंतज़ार के उन लम्हों में सांसों के हिसाब से उन्होंने अपने आने वाले बच्चे के लिए सपने भी देखे, लेकिन कोरे सपनों से क्या होता है... सपने नींद में ही अच्छे लगते है, जागती आंखों के सपनों के लिए इस दुनिया में पैसों की जरूरत होती है।
उनकी जेब में पैसे नहीं थे लेकिन गोद में मन्नतों से मांगा हुआ मासूम  ज़िंदगी की बाट जोह रहा था, वो जो उनके सहारे इस दुनिया में आया था... अपनी औलाद को अपनी आंखों के सामने वो मरता हुआ कैसे देखते।
लेकिन उस निजी अस्पताल के लोग भी आखिर इंसान थे, पत्थर-दिल नहीं...
बेशक पैसा देने में असमर्थ इस परिवार के प्री-मैच्योर बच्चे को ज़िंदा रखने की उन्होंने कीमत लगाई हो...
बेशक एक दिन के उस नवजात की ज़िंदगी और उसके बिलखते मां-बाप के आंसुओं के आगे उनका दिल नहीं पसीजा...
लेकिन अस्पताल प्रशासन और डॉक्टर हद दर्जे तक आशावादी और भाग्यवादी निकले। पैसे नहीं हैं पास में तो क्या हुआ, ज़िंदा रखने की कीमत नहीं चुका सकते तो क्या हुआ, उन्होंने उसे ज़िंदा रखने की कोशिशों में कोई कमी नहीं रखी, एक अदद एंबुलेंस को बुला कर उन्होंने उस नवजात को परिवार के साथ रवाना कर दिया, दिल्ली के अस्पतालों की खाक छानने के लिए। उन्हें आशा थी कि ये बच्चा अपने भाग्य के सहारे जि़ंदा रहेगा।
प्री-मैच्योर बच्चा भाग्य की इसी डोर के सहारे फिर दिल्ली के जाने-माने अस्पतालों के चक्कर काटने लगा। सबसे पहले उसे कलावती अस्पताल ले जाया गया, जहां उसके भाग्य में इलाज होना नहीं लिखा था, लिहाजा वहां उसका इलाज नहीं हुआ। इसके बाद कैट्स एंबुलेंस उस नवजात को लेकर आरएमएल अस्पताल पहुंची। लेकिन यहां भी इलाज उसके नसीब में नहीं था। इलाज के नाम पर यहां भी निराशा हाथ लगी, एक दिन की ज़िंदगी पूरी कोशिश कर रही थी... एक मुकम्मल ज़िंदगी हो जाने के लिए।
आरएमएल के बाद एंबुलेंस दिल्ली की भीड़भाड़ को चीरती हुई एलएनजेपी अस्पताल पहुंची, पहले यहां भी इलाज के नाम पर इंतज़ार मिला और ये इंतज़ार फिर लंबा होता गया... और एक कभी ना खत्म होने वाले इंतज़ार में बदल गया।
एक दिन की ज़िदगी अपने हिस्से की ज़िंदगी जी चुकी थी। राजधानी के अस्पताल उसे इस दुनिया में नहीं रोक पाए। एक अस्पताल ने उसकी जिंदगी की कीमत हैसियत से ज़्यादा लगा दी। तो दूसरे अस्पताल तक पहुंचते-पहुंचते वो एक ' मैटर ' बन गया, जिसकी जांच अस्पताल प्रशासन अब कर रहा है और पता लगते ही हमें बता दिया जाएगा। बच्चे को शायद सॉरी कह दिया जाएगा, क्योंकि अब अस्पताल इस मैटर को उसे समझा नहीं पाएगा।
एक दिन की ज़िंदगी के अपने आखिरी पड़ाव तक जाते -जाते नवजात एक ' पेशेंट ' बन चुका था, और वो गलत गेट पर इलाज का इंतज़ार कर रहा था, जहां इलाज के इंतज़ार में उसके हिस्से की सांसें खत्म होते-होते उसका साथ छोड़ गईं...
एक दिन की ज़िंदगी ...जि़ंदगी को कई सबक सिखा गई। पहले दो अस्पताल जहां उस नवजात को ले जाया गया वो केंद्र सरकार के अंतर्गत आते हैं, फिर उस नवजात ने जहां आखिरी सांस ली...वो अस्पताल दिल्ली सरकार के अधीन है।
ये वैसे तो सार्वजनिक जानकारी का हिस्सा है...
लेकिन इलाज के लिए जाते समय कौन ये सोचता है कि कौन सा अस्पताल किस सरकार के अंतर्गत आता है।
पर यकीन मानिए ये एक बहुत जरूरी तथ्य है जो आज मुझे टेलीविज़न के माध्यम से पता चला।
मगर अफसोस ये जानकारी उस नवजात के पास नहीं थी... 

रविवार, 5 जुलाई 2015

पत्रकार की ज़िंदगी और मौत


कॉन्ट्रैक्ट की नौकरी है तेरी
जिस पर तू इतराता है
तेरे पत्रकार होने के वजूद पर
पत्रकार नहीं...
बल्कि कोई और ठप्पा लगाता है,
हर गली में अब पत्रकार हैं...
तू क्या एक्सक्लूज़िव बना धक्के खाता है...
बातों से दुनिया नापते हो रोज़...
और तेरा सैलरी अकाउंट ...
रोज़ तुझे तेरी औकात बताता है...
मानेगा नहीं तू पर ये सच है...
आखिर तू भी तो इंसान है...
इसमें झिझकना क्या...
किससे शर्माता है...
तुझे गुमान है ...
तुझे खबरों की समझ है...
अच्छा ...
लिख-लिख...
लिख ले खबर...
फिर तान दे...
तू जान दे या ईमान दे...
तेरी खबर कोई कितनी चलाता है...
ये खबर तय नहीं करती है...
बल्कि तू जनता को उसे कितना बेच पाता है...
सच सच बता...
कितनी बार वक्त पर खाना खा पाता है...
दो निवाले अंदर जाते है...एक फोन आता है...
और तू उठ जाता है...
ज़माने भर के सरोकार की बातें मत कर...
क्या जरूरत के वक्त तू अपने घर भी पहुंच पाता है...
अपने हक़ की आवाज़ उठाने के लिए भी सोचता है...
सोचता है... फिर सोचता है...
और सोचता रह जाता है...
फिर एक दिन तुम्हारा एक निर्भीक साथी...
किसी खबर की पड़ताल करते-करते...
ऑन ड्यूटी...
एक नैचुरल मौत मर जाता है...


शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

उजाले की ओर . . .



ये तस्वीर आपसे कुछ कहना चाहती है... 
ये बेफिक्री... कुछ कहना चाहती हैं...
कुछ कहना चाहते हैं ये चेहरे...
ये चेहरे... अनजाने से...
कुछ साफ कुछ धुंधले ...
लेकिन मुस्कुराहट... वही जानी-पहचानी... 
आशाओं वाली... उम्मीदों वाली... 
बिल्कुल वही...
उस ऐड फिल्म की तरह... 
उम्मीदों वाली धूप... 
sunshine वाली आशा... 

कैमरे में मैने इस पल को तो कैद कर लिया लेकिन और भी बहुत कुछ था इस पल के साथ जुड़ा हुआ जो मैं उस वक्त देख रहा था, महसूस कर रहा था। मैं उस पल को वास्तविकता में जी रहा था जो एक कैमरा आप तक पहुंचा तो सकता है लेकिन उसे एक इंसान की तरफ भावनात्मक तौर पर महसूस और बयां करने में अभी शायद समर्थ नहीं है।
कुछ वक्त पहले किसी काम के सिलसिले में गांव जाना हुआ। ये तभी था, जब गांव के स्कूल से लौटते इन बच्चों से मुलाकात हुई।
और यही कुछ ऐसे पल होते हैं जो आपको जाने-अनजाने बहुत कुछ दे जाते हैं।
सालों पहले एक शब्द से साबका हुआ,  जिजीविषा... शाब्दिक और संदर्भित अर्थ तो तत्काल उपयोगानुसार ग्रहण कर लिया गया लेकिन वास्तविक अर्थ... वास्तविकता का दर्शन... इसी जीवन दर्शन से हुआ। आखिर क्या होती है ये जिजीविषा। तमाम विषमताओं और तमाम अभावों के बीच ज़िंदगी कैसे पनपती है... हमारे शहरों से ज़िंदगी के कुछ सबक शायद अछूते रह जाते हैं।


स्कूल से लौटते इन बच्चों के चेहरे थकान से उतरे हुए नहीं बल्कि खुशी से दमक रहे थे, इन बच्चों के होठों पर कोई शिकायत नहीं थी बल्कि वो स्कूल में सीखा कोई गीत गुनगुना रहे थे और सिर्फ गुनगुना नहीं रहे थे बल्कि बुलंद आवाज़ में मास्टर जी द्वारा सिखाए गए पाठ को याद करते जा रहे थे।  इन बच्चों को घर जाकर ट्यूशन नहीं जाना था, ना किसी डांस क्लास में जाना था, ना कहीं म्यूज़िक क्लास में जाना था। घर पर टीवी तो शायद होगा ही लेकिन उस पर तमाम चैनल होंगे या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं। शहर की सभी सुविधाओं की तुलना नहीं करूंगा, वो शायद तर्कसंगत नहीं होगा लेकिन इन बच्चों को घर जाकर आराम करने को भी मिलेगा ये भी तय नहीं था, और ये शायद इस तरफ ध्यान भी नहीं देते होंगे। लेकिन ये बच्चे खुश थे, स्कूल जाकर ... इनकी बातों में स्कूल ना जाने के बहाने नहीं थे... आज की बातें थी, कल की मुलाक़ातें थीं, सपने थे, बालसुलभ जिज्ञासा थी।
कुछ दिन पहले एबीपी न्यूज़ चैनल पर कार्यक्रम रामराज्य देखा। कार्यक्रम के बारे में बहुत चर्चा सुनी थी, इसलिए देखने की जिज्ञासा भी थी और उस दिन का वो कार्यक्रम देखना व्यर्थ नहीं था। रामराज्य के उस एपिसोड में फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली की बात की गई थी। कुछ ऐसा नहीं था जो इस धरती पर संभव ना हो, कुछ ऐसा नहीं था जो हमारे संसाधनों से परे हो। कुछ ऐसा नहीं था जो हमारे इतिहास से बढ़कर समृद्ध, सक्षम, समर्थ, विविधतापूर्ण और गौरवशाली हो।
क्या ऐसा हमारे अपने देश, हमारे अपने शहरों और हमारे अपने गांवों में नहीं हो सकता है। हालांकि ये सोच... बहुत पहले से हमारी व्यवस्था का हिस्सा है, लेकिन एक आदर्श के तौर पर इस सोच का साकार होना अभी बाकी है . . .

रविवार, 21 जून 2015

एक पत्रकार की मौत

पत्रकार... व्यवस्था/तंत्र का एक बहुत जरूरी हिस्सा होते हैंलेकिन ये जरूरी नहीं कि व्यवस्था/तंत्र भी उन्हें उतना ही जरूरी समझे। जरूरी होना और जरूरत होना, ये दो अलग-अलग भाव हैं ...
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वैसे बात सिर्फ पत्रकारिता की नहीं है,  जिन लोगों में ये हुनर होता हैवो कहीं भी किसी भी व्यवस्था में अपने आप को जरूरी साबित कर लेते हैं। ऐसे मामलों में कई अपवाद भी देखने को मिलते हैंकुछ लोग अपनी प्रतिभा के बलबूते पर अपनी जगह बनाते हैं तो कुछ लोगों का हुनर खुद के महत्व को मनवाना और अपनी काबिलियत को स्थापित कर लेना भी होता है।

पत्रकार जगेन्द्र का इन सब बातों से सीधे-सीधे कोई लेना-देना नहीं हैलेकिन एक पत्रकार होने के नाते वो भी स्वयं इस व्यवस्था/तंत्र का ही हिस्सा रहे। उनकी दर्दनाक मौत आम जनता और स्वयं पत्रकार बिरादरी के सामने कई अहम सवाल छोड़ गई है। आखिर उनकी मौत का सच क्या है, एक सभ्य समाज में इस तरह का अमानवीय कृत्यअक्षम्य है। क्यों किया गया, किस लिए किया गयाकैसे अंजाम दिया गया... किसके लिए किया गया... सवाल तमाम हैंलेकिन दरिंदगी की तमाम हदें पार करके ऐसे अपराध को अंजाम देने वाले लोग यकीनन इंसान तो नहीं हो सकते। कानून के साथ-साथ ये लोग इंसानियत के गुनहगार है।
कानून पर भरोसा हमारी सोचदिनचर्यापरवरिश और पेशे का हिस्सा है। भरोसा है जगेन्द्र को न्याय जरूर मिलेगा ठीक है आप जांच कराईए... तसल्लीबख्श तरीके से जांच कराईए,  आप पूरी तरह आश्वस्त हो जाइए कि कौन दोषी है और कौन निर्दोष। पूरे होशोहवास में कोई नहीं चाहता कि किसी निर्दोष को सज़ा मिले लेकिन जिसने जुर्म किया है सज़ा उसे कड़ी से कड़ी मिलनी चाहिएऐसी सज़ा जो एक नज़ीर साबित हो। 
जगेन्द्र सिर्फ एक पत्रकार थेएक मामूली पत्रकार ... वो भी शहर और सत्ता से दूर ... पहले तो वो खुद एक छोटी से खबर बन कर रह गए। ऐसे में एक छोटी सी खबर जगेन्द्र को जरूरत वाले भाव का पत्रकार जगह-जगह खोजता रहा... अखबारों में , टीवी पर, खबरों में , चर्चा में, लोगों में ...चेहरों में ... कहीं से खबर मिले... क्या वाकई एक पत्रकार को जिंदा जलाने की खबर में सच्चाई है, खबरों की जिंदगी जीने वाला पत्रकार मौत की इस खबर पर शायद भरोसा ही नहीं करना चाहता था, आखिर करता भी तो कैसे...
जगेन्द्र की मौत का सच जनता के सामने आना भी उतना ही जरूरी है जितना पत्रकार बिरादरी के लिए, जितना जरूरी वो कानून व्यवस्था के लिए है, उतना ही जरूरी इस व्यवस्था में आस्था और विश्वास के लिए है...
जाने से पहले जगेन्द्र कह रहे थे... मुझे पीट लेते, ज़िंदा क्यों जलाया जगेन्द्र अब जिंदा नहीं है... लेकिन उनका ये सवाल ज़िंदा है और जब तक उन्हें इंसाफ नहीं मिलता ये सवाल यूहीं ज़िंदा रहेगा।



(ये सवाल उन सभी लोगों के लिए भी है, जो शरीर से ज़िंदा हैं लेकिन आत्मा, ईमान, आत्मसम्मान और सोच जैसी तमाम कसौटियों के मुताबिक एक अर्से से मृतप्राय हैं, जो जरूरत से बढ़कर शायद जरूरी... बेहद जरूरी हो गए हैं)

रविवार, 7 जून 2015

LIFE AFTER MAGGI . . .

Dear Maggi . . .



. . . जिंदगी कब करवट बदल ले पता ही नहीं चलता। पिछले कुछ दिन जितने तुम पर भारी रहे हैं यकीन मानो किसी आदत को एकदम से छोड़ देना भी उतना ही कष्टकारी है।
पहले तो भरोसा ही नहीं हुआ, कि दो मिनट में तैयार हो जाने वाली मैगी का भरोसा भी दो ही मिनट में टूट जाएगा। हालांकि सब जानते हैं, ना तो तुम दो मिनट में तैयार होती हो और ना ही ये सारा खेल दो मिनट में सिमट जाएगा। आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है... चलने दो। 
अगर तुम्हारा दामन पाक-साफ है तो फिर तुम्हें कोई छू भी ना पाएगा, अगर किसी ने तुम्हारे खिलाफ साज़िश की है तो भी भरोसा रखो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। औऱ अगर ये तुम्हारा अस्तित्व मिटाने का खेल है तो भी भरोसा रखो। झूठ के पांव नहीं होते हैं... और यकीन मानो सच हमेशा सच ही रहता है।
लेकिन हां... अगर तुमसे गलती हुई है तो उसे स्वीकार करो, पूरी जिम्मेदारी के साथ। भरोसा रखो, हम हिंदुस्तानी सब माफ कर देते हैं, सब कुछ। हमारी सोच जितनी विस्तृत औऱ संकुचित है समान रूप से हमारा हृदय भी उतना ही उदार है।
स्वाद के साथ अगर तुमने सेहत की तुकबंदी की थी, तो फिर उस पर खरा उतरना था, हालांकि आजकल वायदे कर तो दिए जाते हैं लेकिन उन्हें निभाते वक्त इंसान की हकीकत मालूम होती है, तुम तो फिर भी एक ब्रांड हो ... इतना बड़ा ब्रांड कि उसके आगे वायदे, भरोसा, सेहत... सब अदना सा होता चला जाता है उस इसान की तरह जिसका भरोसा फिलहाल तो टूटा सा लगता है।
कोई कह रहा है कि ये माओं का आलस है जो मैगी घर-घर तक जा पहुंचा... अब बताओ भला।
किसी का कहना है कि साल भर की उसकी मेहनत है जो सेहत से इस खिलवाड़ का खुलासा हो पाया...
कहीं बात हो रही है कि ब्रांड मैगी को मरने नहीं देंगे, ब्रांड क्या इंसान से बड़ा हो गया जी...
कहीं मैगी पर रोक लगा दी गई है तो कहीं उसका स्टॉक वापिस लिया जा रहा है...
कहीं मैगी पर बैन के खिलाफ अर्जी दी जा रही है...
इस बीच स्वदेशी मैगी उर्फ हर्बल नूडल्स की मांग और ब्रांडिंग पूरे शबाब पर है। मांग और आपूर्ति की परिकल्पना यही तो है।
हर्बल मैगी का स्वरूप आखिर कैसा होगा, क्या वही स्वाद होगा, क्या वही हवा में तैरती महक होगी जो आपकी भूख को और बढ़ा देती थी... क्या वही दो मिनट का इंतज़ार होगा। क्या फिर से वो भरोसा कायम हो पाएगा। सेहत और स्वाद का एक होना क्या वास्तव में संभव है या फिर ये एक कवि की कल्पना से भी इतर कोई अस्तित्व है।
पर मैगी... डियर मैगी ... तुम घबराओ मत। हो सकता है बहुत जल्द तुम पर लगे सारे आरोप किसी समझौते या संवाद के तहत खारिज कर दिए जाएं। और एक नए सिरे से सेहत और स्वाद को मद्देनज़र रखते हुए (उम्मीद है) तुम्हारी री-ब्रांडिंग की जाए। और अगर ऐसा नहीं भी होता है तो हम दो मिनट का विकल्प ढूंढने और ठूंसने में तुमसे भी कम वक्त लेंगे। बाज़ार में विकल्पों की कमी नहीं है, कभी-कभी तो विकल्पों की जरुरत और मार्केट दोनों बनाए जाते हैं और साम, दाम, दंड, भेद सब कुछ अपनाया जाता है, यकीनन तुमने भी किसी ना किसी स्तर पर ऐसा जरूर किया होगा। फिर एक दिन एक नया विकल्प आएगा और हमें पता चलेगा कि जिस विकल्प को हमने तुम्हारी जगह दी थी वो भी उसके कतई लायक नहीं था। फिर हम एक नया विकल्प खोज निकालेंगे।
ये लापरवाही है, गलती है या फिर मुनाफा कमाने के चक्कर में जानबूझकर मानकों औऱ सेहत के साथ खिलवाड़ किया गया। ये सच तो एक दिन सामने जरूर आएगा।
लेड का स्वाद कैसा होता है, ये हमें पता नहीं मैगी लेकिन उससे नुकसान क्या है ये अब जरूर पता चल गया है, MSG का खेल कैसे खेला जाता है ये भी नहीं पता, लेकिन इन सबकी भरपाई हम कर रहे हैं। स्वाद के नाम पर सेहत भी दे दी...वो भी बस दो मिनट के फेर में।
लोग कह रहे हैं कि हमारे रोज़ाना इस्तेमाल की चीजों में औऱ भी खतरनाक तत्व मिले हुए हैं या मिल जाते हैं या मिला दिए जाते हैं। कहीं कोल्ड-ड्रिंक्स में पेस्टीसाइड्स की बात आती है, कहीं मिलावटी तेल का मसला है, नालों के पानी में पनपती सब्ज़ियां रोज़ाना खाई-पकाई जा रही हैं, केमिकल्स से पकाए गए फल किसी को कैसे सेहत दे सकते हैं। कहीं अनाज, दालों में आर्सेनिक मिल रहा है, तो कहीं रोज़ अंडे खाने पर भी अब सोचना पड रहा है। जगह-जगह मिलावटी और दूषित खाद्य सामग्री की चर्चा और इस्तेमाल, इंसान मिलावट का शायद आदी हो चला है।
एक तरफ तो मैगी ने उपभोक्ताओं के मन में संशय डाल दिया है तो दूसरी तरफ मैगी पर भरोसा करके उसका प्रचार करने वाले भी नूडल्स के फेर में उलझे नज़र आ रहे हैं। यकीनन बात सेहत और स्वाद की ही रही होगी तभी एक भरोसे के साथ एक भरोसे का प्रचार-प्रसार होता है। पैसा कहीं शामिल नहीं रहा होगा, सिर्फ पैसा मेरा मतलब है, शायद खुद का अनुभव भी प्रेरक रहा होगा। या फिर कोई ऐसा एग्रीमेंट होता होगा जो पैसों में ही लिखा जाता होगा। पैसा यानी मनी... अब यहां भी ब्लैक और व्हाईट खोजेंगे तो मामला बहुत भटक जाएगा। कहीं कोई अमिताभ बच्चन से सफाई मांग रहा है तो कोई माधुरी से मैगी खाने का हर्जाना मांगने पर तुला है। क्या ये सितारे फिल्मों में जो भी कुछ करते हैं आप आंख मूंदकर वो सब अपनी ज़िंदगी में करने लगते हैं, एक आम आदमी की ज़िंदगी में क्या इतनी गुंजाइश होती है। आम आदमी आजकल बहुत जागरुक हो गया है लेकिन ये जागरुकता क्षणिक और भौतिक ज्यादा हो गई है शायद।
किसी उत्पाद के दावों की सत्यता को परखना इन सितारों का काम होना चाहिए या सरकार का। या फिर सभी हमारी ही तरह एक धोखे का शिकार हुए हैं। और ये धोखा यकीन मानिए असली वास्तविकता है, उत्पाद का नाम और धोखे का स्तर शायद बदलता रहता है। अगर इन खबरों में लेशमात्र भी सच्चाई है तो ये भरोसा तोड़ने से भी बड़ा गुनाह है... ये गुनाह एक पूरी पीढ़ी के स्वास्थ्य के साथ है, इस गुनाह की व्यापकता को ज़रा देखिए... एक पूरी पीढ़ी। 

 खुशियों की रेसीपी ... दो मिनट की खुशियों की रेसीपी, कहीं किसी की मां को अपना बनाती रही, और जाने कहां- कहां दो मिनट में खुशिया बनाती रही। हम सबकी मैगी की अपनी – अपनी कहानी रही है, हां भई है बिल्कुल है यकीन मानो, क्योंकि मैगी की एक कहानी मेरी भी है, पर ये ना किसी पैक पर है, ना कभी टीवी पर आई और ना ही किसी को सुनाई गई। ऐसा मैने टीवी पर एक एड फिल्म में देखा था, लेकिन मेरी मैगी की कहानी मेरे पास रही। ये कहानी एक चैनल में काम करने वाले एक प्राणी की थी, जो कभी – कभी घर से लाया हुआ खाना नहीं खा पाता था। खाना जिसे पूरे दो घंटे में तैयार किया जाता था उस खाने के टिफिन पर दो मिनट की मैगी वाकई खुशियों की रेसीपी बन कर आती थी। पूरी शिफ्ट के बाद मैगी खाने में एक अलग ही आनंद आता था, पता नहीं झा जी मैगी में क्या डालते थे (यहां लेड और MSG की बात नहीं हो रही है), दिनभर की सेहत और स्वाद की शायद भरपाई हो जाती थी। झा जी का पूरा नाम क्या है कभी मालूम नहीं हुआ , शायद जरूरत ही नहीं पड़ी ना उन्हें बताने की ना हमें पूछने की। बस उनकी बनाई चाय और मैगी से वास्ता बना रहा। एक दिन उनको भरोसे में लेकर उनकी रेसीपी जानने की कोशिश भी की, और फिर उनके बताए तरीके से खुद का हाथ आजमाया, लेकिन वो स्वाद नहीं आया। 
और ये कोशिश उस दिन तक जारी थी . . .