बुधवार, 30 मार्च 2016

मेरे काम के लोग ...


यहां आबादी बहुत है...
लेकिन किसी काम की नहीं...
क्षत-विक्षत शरीर,
छिन्न-भिन्न अंग
वैसे भी किस काम आते हैं...
उनका मकसद
उनकी आत्माओं को छल चुका है
वो पाक-पवित्र रूहें,
जो मैने भेजी थी
ज़्यादातर
दूषित वापिस आ रही हैं
खंडित
यानी डैमेज़्ड
उनकी रहने की वजह
जीने का तरीका
मुझ तक वापसी की राह
जो मैने तय की थी
सब बदल सा गया है,
कुछ पिशाचों को शर्म नहीं
मुक्ति चाहिए...
कुछ नौजवानें को देखा
उन्हें जन्नत के ख्वाब दिखाकर,
अंधेरे रास्तों पर भेज दिया गया...
कुछ अजन्मे बच्चे
अपनी अधूरी माओं के साथ
उनके शरीर के चिथड़ों से लिपटे...
कुछ अविकसित शरीर
कुछ खुली हुई टांगें
चंद बंधी हुई मुट्ठियां
फूटी आंखों की मुर्दा पुतलियों के साथ
बारुद से बुरी तरह गंधाती
अनगिनत गोलियों के रिसते सूराख
बर्बाद होती कुछ उम्दा नस्लें
दुनिया भर से
एशिया, अफ्रीका,
अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप
सीरिया, इराक, अफगानिस्तान
हर शहर
हर नगर से
वो मुझे
डैमेज़्ड माल वापिस कर रहे हैं...
एमेजॉन औऱ फ्लिपकार्ट की तरह
एक्सचेंज के लिए मेरे पास कुछ नहीं है
ये नकारा आबादी
मेरा बोझ
मेरी ज़िम्मेदारी बढ़ती जा रही है
ये भूखे हैं
इनको खाना चाहिए
मैं चुनिंदा किसानों को वापिस बुला रहा हूं
वहां धरती पर वो भी भूखे हैं
उनको भी खाना चाहिए
उन्हें सिर्फ वादे मिल रहे हैं
भूखा पेट
सूखी रोटी कब तक चबाएगा
सूखा खेत
सूखे पेड़
सूखे कुएं
सब ज़रिया बन जाते हैं...
मैं मजबूर हूं
मुझे बहानों की जरूरत नहीं
लेकिन
अच्छे लोगों की जरूरत सभी को होती है 
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गुरुवार, 3 मार्च 2016

शहर ( क्यों ) जब शमशान बनते हैं . . .

मुद्दों की आड़ में
गई इंसानियत भाड़ में
हैवानियत के ठेके पर
जब हम ताज़ा ताज़ा हैवान बनते हैं...
बहुत कुछ गवां देती है ज़िंदगी
चंद मकसदों के लिए
शहर जब शमशान बनते हैं...
कर्फ्यू की खामोशी में
दस दिन की बासी रोटी में
मांगें हुए चंद निवालों में
किस तरह दिन सालों से निकलते हैं
ऑर्डर की राह तकती आंखों की बेबसी
भीड़ के आगे क्यूं बेज़ुबान बनते हैं
रिश्तों के कफन लिए
चंद कमज़र्फों की कमान में
शहर जब शमशान बनते हैं...
खाली पड़े बंद मकानों में
लुट चुकी जली दुकानों में
लाशों की राख है बिखरी हुई
मुर्दा मोहल्लों... अरमानों में
रंगों में
निशानों में
फर्क मिट जाए 
जब इंसानों में
हदों से भी आगे
हम बेशर्म अनजान बनते है
चंद मतलबों के लिए
शहर जब शमशान बनते हैं
अपनों के ही हाथों
अपनों की लाशों के मचान बनते हैं
शहर ... जब शमशान बनते हैं...